प्रतिबिम्ब देखकर अपना बिम्ब सुधारें - आशुतोष राणा से विनय उपाध्याय की बातचीत

प्रतिबिम्ब देखकर अपना बिम्ब सुधारें

किताब 'सफ़ह पर आवाज़' में प्रकाशित आशुतोष राणा से विनय उपाध्याय की बातचीत 


सिनेमा हो, समाचार हो, साहित्य हो, ये समाज के प्रतिनिधि नहीं हैं, ये समाज के प्रतिबिम्ब होते हैं । प्रतिबिम्ब का महत्व इसलिए होता है कि अपना प्रतिबिम्ब देखकर हम अपना बिम्ब सुधार लें, न कि प्रतिबिम्ब के साथ प्रतिस्पर्धा करना शुरू कर दें।



जिस वक्त में हम जी रहे हैं, उसे किस तरह रेखांकित करेंगे?

हम सबकी एक प्रकृति और प्रवृत्ति होती है कि हम अक्सर अपने बीते हुए समय को बड़ा स्वर्णिम और वर्तमान समय को बड़ा संकटपूर्ण मानते हैं। आने वाले समय के प्रति हम घोर चिन्ता से भरे होते हैं। भारत सोने की चिड़िया हुआ करता था, अब वर्तमान में बड़ी विकट स्थितियाँ हैं और आने वाले समय में बड़ा संकट है साहब। लेकिन मैं इसको संकट के रूप में नहीं मानता। मैं इसको चुनौती के रूप में मानता हूँ कि हर समय की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति का समय नहीं होता। जब समय बदलता है, समय की चाल बदलती है, वातावरण बदलता है तो उस चीज़ के बारे में लोगों के दृष्टिकोण बदलते हैं। दृष्टिकोणों के बदलने का अर्थ ये नहीं होता कि आने वाले समय में हम संकट में हैं।

मेरे दादाजी बहुत कमाल के थे। घर का जो दरवाजा है उसकी जो आज टूटी हुई सी चौखट है, ये दादाजी ने लगवायी थी और वो उसको झाँसी से लेकर आये थे, उनको लक्ष्मीबाई ने दी थी। अब ये दरवाज़ा टूट चुका है, दरक गया है, अगर मैंने ये चौखट नहीं बदली तो मेरा पूरा का पूरा घर गिर जायेगा और मैं अपनी सिर्फ इस जिद्द के चक्कर में, उस चौखट के प्रति सिर्फ़ अतीत भाव से भरा रहूँ, मुझे लगता है कि मुझसे उस समय अगर कोई बदलने वाला आदमी बात करेगा तो वह कहेगा कि ये बागी हैं। इनको संस्कृति और सभ्यता की कद्र नहीं है और जो नहीं बदलने वाला है उनके पक्ष में कुछ लोग खड़े हो जायेंगे कि नहीं ये बिल्कुल संस्कृति और सभ्यता के रक्षक हैं। मेरा यह मानना है कि समय के साथ चीजों को बदलने का मतलब ध्वस्त होना नहीं होता बदलने का मतलब संकट नहीं होता ।

असहमति बहुत स्वाभाविक चीज़ है पर उसके साथ अशिष्टता का घालमेल हो जाता है। ये वो दौर है जहाँ असहमतियों को लेकर विद्रोह का अजीब वातावरण है?

हम आज के दौर में अशिष्टता को असहमति मान बैठे हैं और असहमति को अशिष्टता । मेरा यह मानना है कि शिष्टतापूर्वक असहमति अधिक कल्याणकारी होती है एक अशिष्टतापूर्वक की गयी सहमति के। मैं आपसे कह दूँ कि 'आदरणीय विनय जी मेरा इस विषय पर एकभिन्न दृष्टिकोण है, मैं आपके दृष्टिकोण पर विचार अवश्य करूँगा, लेकिन मेरी अपनी मान्यताएँ हैं, मेरे अपने सत्य हैं। मुझे उम्मीद है मैं आपके सत्य का आदर करता हूँ लेकिन आप भी मेरे सत्य का आदर करेंगे। मैं आपसे असहमत हूँ।' आप मेरे मित्र हो जायेंगे। असहमत होते हुए भी आप मेरे मित्र हो जायेंगे। लेकिन हो क्या रहा है कि अशिष्टता को हमने असहमति मान लिया और असहमति को हमने अशिष्टता मान लिया। आप क्या बोल रहे हैं, इससे अधिक महत्वपूर्ण होता है कि आप कैसे बोल रहे हैं।

सांस्कृतिक शुचित यानी संस्कृति से जुड़ी मूल्यगत आदर्श बातें आज बहुधा नई नस्ल को स्वीकार नहीं। अजीब विचलन है....।

हमारे बुजुर्गों का तो हम धन्यवाद मानें कि उन्होंने हमें बहुत अच्छा परिवेश दिया। लेकिन क्या मैं अपने बच्चों को वह परिवेश, वह स्थिति परिस्थिति दे पाऊँगा? निश्चित रूप से मेरा जीवन अपने बच्चों के लिए या तो चेतावनी हो सकता है या उदाहरण । या तो वार्निंग हो सकता है या एग्जाम्पल तो हमारा प्रयास है कि हम उसको उदाहरण के रूप में बच्चों के सामने पेश करें और हम और आप ये कह सकते हैं कि हम वाहक हैं संस्कृति के या हम वाहक हैं किसी कृति के। लेकिन संस्कृति हो, सभ्यता हो, ये तमाम चीजें अपने वाहकों को ढूँढ ही लेते हैं। इनकी शुचिता को हम बरकरार रखें, इस मुगालते को मैं नहीं पालता। मेरा यह मानना है कि इनकी शुचिता मुझे बरकरार रखे हुए है। तभी आज के दौर में भी आप प्रांजल भाषा बोलने के पक्षधर हैं। नहीं तो किसने रोका है आपको तुर्की बोलने में? हमको मुम्बई में किसने रोका है अंग्रेजी बोलने में? जैसी मन लगाकर हमने हिन्दी सीखी है वैसी मन लगाकर हम अंग्रेजी सीख लेंगे। जब हम तमिल, तेलुगु के डॉयलॉग बोल सकते हैं तो अंग्रेजी नहीं बोल सकते? किसने रोका है? किसी ने नहीं रोका।

आप फ़िल्मों के संसार से वाबस्ता हैं। अक्सर सिनेमा के पुराने दौर की दुहाई दी जाती है। उसे नए सिनेमा के समानांतर बेहतर आँका जाता है। आपकी राय?

अब हम ये कहें कि पुरानी पटकथाएँ क्या सबकी सब अच्छी थीं? नहीं। फ़िल्म साल में हज़ार बनती थीं। अगर हम और आप ये कहें तो हम सिनेमा करने वाले और आप सिनेमा देखने वाले दस श्रेष्ठ फ़िल्मों के नाम न गिना पायेंगे कि ऐसी फ़िल्म बनना चाहिए। साल में हज़ार फ़िल्म बनती थीं तब भी दस और पन्द्रह फ़िल्में ही अच्छी की श्रेणी में गिनी जाती थी। ये हो सकता है कि उस समय सौ फ़िल्में अगर बन रही हैं तो उसमें से तीस फ़िल्में बड़ी अच्छी हों। दस प्रतिशत ऊपर-नीचे हो सकता है, लेकिन उस दौर के रसिक हम थे। अब आज के बच्चों को ये पता नहीं कि क्या पसन्द आ रहा है? मतलब हम 'सबरी के बेर' खिलाने की प्रक्रिया में हैं कि मीठा मुझे लगा तो आपको लगना चाहिए।

क्या कारण है जो संगीत हमारे शोर को शान्त करता था, आज वही संगीत हमारे शोर का कारण हो गया। उसके बाद भी चल रहा है। संगीत को भी हमने क्या मान लिया ! अब ये मौसम या मिजाज़ के जैसे हो गया है। पहले संगीत के माध्यम से हम अपना मिजाज बदल देते थे, अब आज की तारीख़ में हमने संगीत को ही मिज़ाज़ बना दिया है। इसकी शुरूआत हमारे और आपके दौर में हो गयी थी- बिनाका गीतमाला से जो पायदान तय करती थी। गीतों में आप पायदान बनाने लगेंगे, ये ठीक नहीं। हर गीत की अपनी लहर है, हर गीत की अपनी बहक है, हर चीज़ की अपनी एक निजता है। जब तुलनात्मक अध्ययन करके उसको पायदान बनाने लगोगे तो ये स्थितियाँ कुछ और होंगी।


मुझे यह लगता है कि हर दौर का अपना सिनेमा है। कभी किसी दौर के सिनेमा की तुलना किसी दौर के सिनेमा से नहीं करना चाहिए अगर वो सृजन है तो किसी दौर की पत्रकारिता की तुलना किसी दौर के पत्रकार से नहीं करना चाहिए। भाई, उस समय नन्ददुलारे वाजपेयी जी पत्रकार हुआ करते थे, अब आप हम पूछ लें कि भैया आप तो नन्ददुलारे वाजपेयी जी नहीं हैं? कहाँ, कैसे सवाल पूछ रहे हो? तो हर सिनेमा की अपनी निजता होती है, अपना स्वरूप होता है और स्वरूपों में कहीं तुलनात्मक अध्ययन जब हम और आप करने लगते हैं, फिर उस चलती हुई प्रक्रिया को कहीं हम रोक रहे होते हैं, मेरा ऐसा मानना है।

एक फ़िल्म आयी थी 'मुल्क' चर्चा बहुत हो नहीं पायी उसकी लेकिन उसमें व्यक्ति और समाज का नया मनोविज्ञान था। क्या कहती है यह फ़िल्म ?

हमारी फ़िल्म 'मुल्क' जिसमें गंभीर विषय की चर्चा है। एक कृत्य किसी एक व्यक्ति ने किया और पता लगा कि उस दुष्कृत्य का जिम्मेदार उसके सम्पूर्ण परिवार को मान लिया गया और ये साबित करने का प्रयास किया गया कि नहीं, एक व्यक्ति के द्वारा किया गया दुष्कृत्य परिवार की जानकारी में हो रहा है, परिवार की सहभागिता से हो रहा है, इसका सम्पूर्ण परिवार इस दुष्कृत्य में शामिल है। ये क्या है? हम भी बैठे-बैठे अपने घरों में, आवश्यक नहीं कि हम चिल्लाकर बात करें, लेकिन बहुत शालीनता से भी हम अपनी कट्टरपंथी मानसिकता को घोषित करते रहते है। यह आवश्यक नहीं है कि हर चिल्लाने वाला, हर आक्रामक व्यक्ति दोषी हो और यह भी आवश्यक नहीं है कि हर चुप रहने वाला शान्त व्यक्ति निर्दोष हो। क्योंकि आइडियालॉजी और मानसिकता दो अलग-अलग चीजें हैं। मेन्टालिटी एंड आइडियालॉजी- विचारधारा और मानसिकता। दो समान विचारधारा के लोग अलग-अलग मानसिकता के हो सकते हैं और दो अलग-अलग मानसिकताओं के लोग समान विचारधारा के हो सकते हैं। ये जो द्वन्द्व है, ये मानसिकताओं का द्वन्द्व है, जो विचारधाराओं के नाम से प्रचारित किया जा रहा है और इसमें निश्चित लाभ-हानि के गणित होते हैं।

सेन्सेबल समाज में न्यूसेन्स ज्यादा प्रखर होता है, जैसे सफेद कपड़े के ऊपर छोटा-सा भी काला दाग आपको दूर से दिखाई दे जाता है। साहब, सेन्सेबल सोसायटी में इतना सा भी न्यूसेन्स बिल्कुल वैसा ही है जैसे सफेद कपड़े पर, जगमगाते हुए कपड़ों पर उछला छींटा । तो ये काला छींटा दिखता जरूर है लेकिन स्वागत योग्य नहीं होता।

आज के दौर में सिनेमा की भूमिका क्या और कैसी दिखाई देती हैं आपको?

फ़िल्में ही समाज को बना रही हैं और फ़िल्में ही समाज बिगाड़ रही हैं। इतनी सारी फ़िल्मों में हीरोचित कृत्य को क्यों समाज के लोग स्वीकार नहीं करते और विलेन- खलनायक के कृत्य को क्यों स्वीकार कर रहे हैं? उस फ़िल्म में बोली गयी अच्छी भाषा स्वीकार नहीं की जा रही लेकिन गाली स्वीकार की जा रही है तो दोष फ़िल्म का? दुर्योधन ने अपनी भाभी का चीरहरण फ़िल्म देखकर नहीं किया था। रावण फ़िल्म के प्रभाव से प्रभावित होकर मातेश्वरी जगत जननी माँ सीता को उठाकर नहीं ले गये थे, साधु बनकर ले गये थे। दुष्कृत्य या तमाम घटनाएँ दुर्घटनाएँ पहले भी होती रहीं। हम रोज प्रवचन- कथाएँ सुनते हैं तो उन प्रवचन- कथाओं का, स्कूलों में पढ़ायी जाने वाली पढ़ायी का हमारे ऊपर इतना प्रभाव नहीं पड़ता, लेकिन उस तीन घण्टे की फ़िल्म के लिए हम अपनी तमाम सीखी हुई व्यवस्थाएँ भूल जाते हैं! कितना चमत्कार है, कितना जादू है, कितनी ताकतवर चीजें हैं!






 'सफ़ह पर आवाज़' से साभार 





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