कंठ से झरता कामनाओं का संगीत - स्मरण : संगीत विदुषी वसुंधरा


कंठ से  झरता कामनाओं का संगीत

विनय उपाध्याय


चित्र - गूगल से साभार 


देश अभी स्वाधीन नहीं हुआ था। साल 1945 का रहा होगा। कलकत्ता में ऑल इंडिया बंगाल कॉन्फ्रेंस ने अपना सालाना संगीत जलसा आयोजित किया। प्रतिभाओं को परखने का यह सिद्ध मंच था। तेरह बरस की एक किशोरी इस स्पर्धा में शरीक़ होती है। ‘शुद्ध सारंग’ और ‘छाया नट’ के राग स्वरों में बंधी बंदिशें उसके कंठ से झरती हुई श्रोताओं की रूह में उतर जाती है। प्रथम विजेता का गौरव, मुस्कान बनकर उसके चेहरे पर खिल उठता है। हाथों में चाँदी का तानपुरा और सीने पर जीत का मेडल थामे यह उदीयमान गायिका मंच से उतरती है और एक भरे-पूरे आश्वासन की तरह संगीत के आसमान में उड़ान भरने का हौसला बटोरती है। 

बिरादरी ने बहुत बात में जाना कि यह विलक्षण गायिका और कोई नहीं, वसुंधरा कोमकली है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का गोमुख कहलाने वाले ग्वालियर घराने की ठेठ पारंपरिक गायिकी को नया उजास देने की हुमस से भरा यह वही स्त्री स्वर था जो बाद में क्रांतिकारी संगीतकार और प्रयोगधर्मी गायक पंडित कुमार गन्धर्व के जीवन संगीत की ऊर्जा बन गया। 

23 मई 1931 को जमशेदपुर  में वसुंधराजी का जन्म हुआ। ननिहाल में बचपन बीता। नानी और मामा की रंगमंच में गहरी दिलचस्पी थी। इस किशोरी पर यह भी असर रहा। रंगमंच के अलावा कोलकाता रेडियो में वसुंधराजी की सक्रियता बढ़ी। उनके गायन का नियमित प्रसारण होने लगा। उन दिनों रेडियो कलकत्ता में अग्रणी तबला वादक उस्ताद अल्लारखा स्टाफ़ आर्टिस्ट थे। वसुंधराजी को उनकी संगत में गाने का सौभाग्य भी मिला। परिवार कलकत्ता से मुंबई स्थानांतरित हुआ। महाराष्ट्र की संगीत सभाओं में भी जाने का सिलसिला बना। वसुंधरा के मन में अपनी नैसर्गिक गान-प्रतिभा निखारने का संकल्प जागा। गुरु की तलाश हुई। सौभाग्य से ग्वालियर घराने के तपस्वी साधक गुरु पंडित देवधर से भेंट हुई। तालीम शुरू हुई। कीमती सबक मिले। वसुंधरा, विरासत के उत्तराधिकार का आश्वासन बनकर प्रकट हुई। मुंबई में ही कुमारजी से सुरीला संयोग बना। पारिवारिक निकटता बढ़ी। दोनों विवाह सूत्र में बंधे। यह संगीत की दो धाराओं का संगम था। वसुंधराजी के पास हिन्दुस्तानी संगीत की उर्वर ज़मीन से मिले संस्कार थे और कुमारजी संगीत के शास्त्र से हमजोली करते हुए गायन में प्रयोग और नवाचार जी नई उड़ान भरने का क्रांतिकारी साहस लिए संगीत के नए ज़माने से आँख मिला रहे थे। वसुंधराजी ने कुमारजी के संगीत चिंतन को नई दिव्यता प्रदान करने का फ़र्ज़ निभाया। गीत वर्षा, गीत हेमंत, गीत वसन्त, ऋतुराज महफ़िल, त्रिवेणी, निर्गुण वाणी जैसी अनेक विषय वस्तु केन्द्रित प्रस्तुतियों में कुमारजी के साथ सहगायन किया। इस बीच वसुंधरा जी ने आयी बदरिया, मालवा की लोक धुनें और ऋतु एक दर्शन जैसे संगीत रूपक तैयार किए। 

कुमार जी के क्षय रोग से पीड़ित होने के बाद जब मुंबई से मध्यप्रदेश के देवास शहर में बसना हुआ तो वसुंधरा जी के ऊपर गृहस्थ जीवन की दोहरी ज़िम्मेवारी आ गई। अपना रियाज़ करने वे सुबह 5 बजे उठती। दिन चढ़ता तो कुमार जी की सेवा और बच्चों की परवरिश में ख़ुद को झोंक देती। वसुंधरा जी अभिरुचि सम्पन्न स्त्री थी। उनके कंठ से कामनाओं का संगीत झरता था। विचित्र संयोग है कि एक स्वतंत्र गायिका के रूप में उनकी कामनाएं उत्कर्ष के अपेक्षित आसमान तय नहीं कर पायीं। इसका मलाल उन्हें भी रहा। 

चित्र - गूगल से साभार 

बेटी कलापिनी के पास अपनी माँ की स्मृतियों का बेशक़ीमती दस्तावेज़ है। दरीचे खुलते हैं तो हर बार एक नई छवि रौशन होती है। वे बताती हैं कि ताई (माँ) का संगीत के दार्शनिक, आध्यात्मिक और रंजनकारी पक्षों के अलावा नाटक, चित्रकला, साहित्य, बाग़बानी, सिलाई और पाककला में गहरा रुझान रहा। कुमार जी के निधन के बाद उन्होंने अपनी बेटी कलापिनी और पोते भुवनेश को स्वर संस्कारित किया तथा बेहतर परवरिश के साथ उन्हें गढ़ा। भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री के नागरिक अलंकरण और संगीत नाटक अकादेमी दिल्ली ने राष्ट्रीय सम्मान से विभूषित किया। वसुंधरा जी अपने संगीत समय में इस चिंता से भरी रहीं कि शास्त्रीय और लोक संगीत भी बाज़ार के ग्रहण से बच नहीं पाया। गुरु परम्परा अपने मक़सद से भटक रही है और नई पीढ़ी दौड़ और होड़ में गाफ़िल  है।






(जागरण, नईदुनिया एवं नवदुनिया के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित लेख)


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