नदी से माँगी माँ की बेटी हूँ - शारदा सिन्हा


 

नदी से माँगी माँ की बेटी हूँ 

शारदा सिन्हा



सरस्वती उनके पूरे व्यक्तित्व में बोलती थी। वे लोक की चिंताओं में गहरी डूबी हुई थीं। वे भोजपुरी की अनन्य गायिका थीं जिन्होंने अपने अंचल की पूरी देशज परंपरा को अपनी स्मृति और कंठ में बचाकर रखा है। एचएमव्ही जैसी नामी कंपनी ने 'मैथिली कोकिला' नाम से एक कैसेट के ज़रिए इस नवोदित गायिका को पहचान के नए पंख दिए। लेखा-जोखा उठाकर देखें तो शारदाजी के खाते में सौ से ज़्यादा सीडी अलबम, कैसेट्स और हज़ार से ज़्यादा देश-विदेश में हुए सफल संगीत समारोहों की उपलब्धियाँ हैं। फ़िल्मों के लिए भी वे लोकगीत गाती रहीं। राष्ट्रपति ने उन्हें पद्मश्री और पद्मभूषण से अलंकृत किया। संगीत नाटक अकादेमी नई दिल्ली और लखनऊ की 'सोन चिरैया' लोक संस्था ने पुरस्कृत कर उनकी लोक धर्मी कला का मान बढ़ाया।

भारत के जनपदीय लोक कंठ की मधुरिमा का दुनिया भर में सुरीला विस्तार करने वाली बिहार की जनप्रिय गायिका शारदा सिन्हा के निधन पर टैगोर विश्व कला एवं संस्कृति केन्द्र आरएनटीयू भोपाल की हार्दिक संवेदना...श्रद्धांजलि ।
शारदाजी की स्मृतियों को साझा करती, रंग संवाद में प्रकाशित अनुलता राज नायर के साथ उनकी  यह ख़ास बातचीत 


अनुलता राज नायरः दुनिया जहाँ का प्यार दुलार, मान-सम्मान और यश मिला आपको पर इस सफ़र की शुरुआत कब हुई? 

शारदा सिन्हाः ये सवाल किसी भी गायक से आप पूछेंगी तो वो अक्सर यही कहेंगे कि उन्होंने बचपन से गाना शुरू किया पर मैं वास्तव में बहुत ही छोटी उम्र से गाने लगी थी। मैं किताबों में जब कविताएँ पढ़ती थी तो उसको गा-गा के पढ़ती थी, और याद करती थी। पिताजी टोकते भी थे कि तुम कविताओं को गा के पढ़ती हो। तब नहीं समझी थी पर अब समझी, और बड़े भाई भी बताते हैं कि बाबूजी इतने दूरदर्शी थे, ऐसी पारखी नप्तर थी उनकी कि जब उन्होंने देखा कि मैं इतनी छोटी उम्र से कविता को गेय बना के याद कर रही हूँ तो वो समझ गए कि मेरे भीतर शायद कोई गायिका है। तो उन्होंने मुझे 'सिखलवाना' शुरू किया। यानी रुचि जिस तरफ है उस तरफ बढ़ने देने की सोच उस जमाने भी उनमें रही इसलिए वो आज तक हमारी प्रेरणा हैं। बाबूजी ने उस वक्त हमें संगीत सिखाना तय किया। तब लड़कियों को पढ़ाना ही बड़ी बात थी, गाना सिखाना तो कोई सोचता भी नहीं था। बाबूजी ने ऐसा प्रबंध किया कि गुरुजी घर पर आकर सिखा सकें क्यूँकि उस वक्त लड़कियाँ बाहर जाकर नहीं सीख सकती थीं। बाबूजी श्री शुभदेव ठाकुर, सरकारी नौकरी में थे। एजुकेशन डिपार्टमन्ट में। तब बिहार और झारखंड एक था। ये 1960 के आस-पास की बात है और तब का गाँव समझिए। उस समय हम बाहर पढ़ रहे थे तब छुट्टियों में बाबुजी गाँव ले आया करते थे ताकि हम देखें- सीखें कि गाँव कैसा है।

इसलिए गाँव से मेरा हमेशा नाता जुड़ा रहा। गर्मियों की छुट्टियों में यानी आम के महीने में आंधियाँ देखना, टिकोलों का गिरना, ये सब देख के, खुद महसूस करके समझा। पढ़ा नहीं, बल्कि व्यावहारिक ज्ञान लिया। तो वहीं से मेरी शुरुआत हुई। घर में सब भाई और हम मिल के भजन वगैरह गाते थे। तुलसी और कबीर को खूब गाया। बाद में गुरुओं से बाक्रायदा शिक्षा शुरू हुई। तब आठवीं कक्षा में रहे होंगे। रामचन्द्र झा जी थे, पञ्चगछिया घराना से, पंडित रघु झा जी थे, तो उन लोगों से घर पर ही संगीत की शिक्षा ली। दो-दो तीन-तीन दिनों की सिटिंग लगती थी। उन दिनों ऐसा था कि गुरुओं की खूब सेवा खातिर होती थी। उनके खाने, पीने, सोने रहने सबका बहुत ही अच्छे से इंतिजाम किया जाता था। उस समय का जी गेस्ट रूम था वो बिल्कुल दरवाजे पर होता था। गुरुजी नियमित नहीं थे तो उनकी गैरहाजिरी असर नहीं करती थी? नहीं-नहीं, गुरुजी होमवर्क या कहिए टास्क देकर जाते थे। तो उनके ना होने पर बाकायदा रोज नियम से रियाज करते थे। बाक़ी गाने, भजन, प्रार्थना तो चलती ही रहती थी। बड़े हुए तो और भी गुरुओं से सीखा जैसे- ग्वालियर घराने के सीताराम हरि डाँडेकर जी से और श्रीमती पन्ना देवी जी से तुमरी दादरा। शारदा जी अब तक की बातचीत में माँ का जिक्र नहीं आया? कुछ बताइए ना उनके बारे में। (कुछ देर सोचते हुए) देखिए हमारा समाज पुरुष प्रधान तो रहा ही है और बाबूजी चूंकि ज्यादा खुले विचारों के थे। माँ को, जिनका नाम सावित्री देवी है, उन्हें भीतर से लगता था कि लड़की को संगीत सिखा रहे तो लोग क्या कहेंगे? हालाँकि ऐसा नहीं था कि वो रोक रहीं हों। मेरे मायके में ये रोकटोक बिल्कुल नहीं रही। शायद बाबूजी का इतना सपोर्ट था, घर में पढ़ाई-लिखाई वाला माहौल रहा इसलिए कहीं कोई दिक्कत नहीं आई। माँ भी पढ़ी लिखी थीं, उस जमाने में मिडिल स्कूल की हेड मिस्ट्रेस रहीं, बाद में गृहस्थी सम्हालने के लिए नौकरी छोड़ दी। ये 1938/39 की बात होगी। तो सारे भाइयों के साथ मिल कर हम गाते रहे जबकि गायकी की कोई प्रथा हमारे खानदान में नहीं रही। भाई कोई संगीत के क्षेत्र में आगे आए नहीं जबकि उनकी आवाज बहुत अच्छी थी।

बचपन का कोई किस्सा बताइए, खेत-खलिहान, लोक से जुड़ा। 

- बचपन में बाबूजी हमको भाईयों के साथ खेत-खलिहान भेज देते थे कि जाकर देखो कैसे जुताई, रोपाई हो रही, कटाई हो रही। बिना देखे कैसे जानोगे कि धान कैसे कटता है। वो कहते हैं ना कि कहानियाँ लिखना हो, किरदार समझने हों तो यात्राएँ की जानी चाहिए, ये ठीक वैसा ही था। यानी खुद अनुभव करना सिखाया बाबूजी ने। मेड़ों पर खड़े हम देखते रहते, मन ललकता कि हम भी काटें धान। वैसे ही आँगन में चूड़ा कुटाता था ओखली में ओखल और समाठ, उसकी हाथ में लेकर कूटने की कोशिश करते। माँ बहुत डाँटती थीं कि हाथ में पड़ गया तो हाथ चला जाएगा। अनाज कूटने की डेंको चलते थे। ये सब समझिए कि लोक गीत के कंटेन्ट हैं।

धान काटने की मेहनत देखी आपने। तब ही तो ऐसे प्यारे श्रम गीत गाए- "दिन भर के थकन माँदल घर जब आइब, रूसल पिया के जियरवा रिझाईब"। आपने लोक देखा, शायद ये कहना सही होगा कि आपने लोक जिया है। बताइए ना कुछ, कोई और ऐसा मीठा क्रिस्सा। 

- परिवार में अकेली बेटी रहे हम। कई सालों बाद पैदा हुई। बड़े माँग- चाँग के पैदा हुए। माँ बताती हैं कि तुमको हमने कोसी से माँगा है, कोसी नदी से। आप सोचिए बड़ी दिलचस्प बात है इतने सालों पहले भी मेरी माँ ने बेटी माँगी थी। उन्हें बड़ा शौक़ था कि उन्हें बेटी ही वह उसकी चोटी पाटी करें, उसे सजाएँ। (जोर से हँसते हुए) माँ कहती थी कि आँगन बेटी के बिना अच्छा नहीं लगता तो नदी से माँगने का तो रिवाज है ही ना। तो गंगा नहीं, कोसी नदी से माँगा। बेटी हुई तो कोठी-पाठी और न जाने क्या-क्या देंगे। गाँव में लोग 'कोसी की बेटी' कहते हैं। कहते हैं कि माँ ने पूजा की और सबके कहने से अड़हुल का फूल आँचल में छान लिया, फिर कहा गया कि इसको रात में खा लेना, तो माँ ने खा लिया। शी वात प्रेग्नेंट। ये प्राकृतिक भी हो सकता है पर कहते हैं ना कुछ न कुछ तो बात होगी ही... और संजोग से बेटी हो गई। माँ बहुत खुश।... जानती हो अनुलता, ये बात मैंने पहले किसी ओर से कहीं भी नहीं।

आपसे मिल कर बात करके मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है जैसे बरसों से जानती हूँ, जैसे माँ की गोद में सर रखे गाँव दुआरे की, ननिहाल की, खेल खलिहान की, गीत गानों की कहानी सुन रही हूँ। जैसे कोई माँ अपनी विरासत सौंप रही हो मुझे। आपके बेटे अंशुमान और बिटिया वंदना भी उतने ही प्यारे। आपने भी छुट्टियों में गाँव आने की बात की। क्या आप शहर रहती थीं?

- हाँ, मैं पटना में रही। पहले क्लास छः में वनस्थली में दाखिला लिया पर वहाँ रह नहीं पाई, बहुत दूर था। फिर पटना में बाँकीपुर हाई स्कूल में पढ़ी, जो सरकारी स्कूल था पर बहुत अच्छा और सबसे खास बात कि वहाँ म्यूजिक था और इसी कारण कॉनवेंट या और किसी अँग्रेजीदाँ स्कूल कॉलेज मैंने नहीं चुने।


शारदा जी, आपकी बिंदास हँसी और आँखों की चमक देख कर मुझे लग रहा है कि आप बचपन में शरारती रही होंगी? अपने गाँव हुलास की कुछ चटपटी बातें हमें भी सुना दीजिए।

- (जोर से हँसते हुए) बचपन में बाबूजी धान कटाई के समय खेत भेजते कि चोरी-चारी ना हो, तरा नजर रखना। तो हम और भाई वहाँ ऐसे बात करते कि किसी को समझ ना आए क्यूंकि मैथिली बोली तो सब जान जाएँगे। यहाँ बता दें कि हम बातचीत मैथिली में ही करते थे हालाँकि गाया मैंने सभी भाषाओं में है- मगही, बज्जिका, भोजपुरी...। तो हमने अपनी भाषा ईजाद की और उल्टा करके बोलना-गाना भी सीख लिया। हम खेत की मेड़ों पर गाते थे "झेमु यानिदू लोंवा बिरास न झोमस" "मुझे दुनिया वालों, शराबी न समझो गाते तो लोग नाम धरते कि ठाकुर साब अपनी बेटी को कैसा संगीत सिखा रहे हैं। (हँसती हैं जोर से) ऐसे ही ग्वाली, याने जहाँ बैल गाय बाँधते थे वहाँ हम बैलों के साथ जुगलबंदी करते थे। भूसाई नाम का बैल था, काली आँखों वाला, और एक था झनक सिंह। ये नाम इसलिए कि उसको कहीं ले जाना हो तो पहले दौड़ाना पड़ता था, यानी वार्मअप करना होता था, वरना उसको 'झनक' लगती थी। तो ये दोनों बैल मेरा गाना सुनते और अपना गला खखार के अआ... करने लगते। (ठहाका लगाते हुए गाने लगीं) गाँव से, जानवरों से बड़ा लगाव रहा मेरा शुरू से। कितना बढ़िया था ना उस समय कि बाहर नौकरी करने को निकले अधिकतर लोग रिटायरमेन्ट के बाद गाँव चले जाते थे। घर तो वहीं होता था ना।

वो पहला मौक़ा कौन सा था जब आपने पब्लिक्ली गाना गाया। वो कहते हैं ना ब्रेक का मिलना? 

उसके दो स्तर मानते हैं हम। एक तो प्रोफेशनल स्तर और एक स्कूली। जब हम स्कूल में थे तो हर 15 अगस्त को, 26 जनवरी को राजभवन में जाने की बात होती थी तब हम हमेशा जाते थे और सबसे आगे रहते थे। उसी क्रम में हमारे दूसरे राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन आए थे पटना, तो हमने उस समारोह में भी हिस्सा लिया था। मणिपुर नृत्य किया था हमने। बाकायदा सीखा था हमने और शौक़ भी बहुत था। फिर गाँव का अनुभव है जहाँ नाटकों के बीच में गाने के अवसर मिले। लेकिन एकदम प्रोफेशनली स्टेज पर गाने का अवसर 1974 में मिला। दरभंगा में दुर्गा पूजा के अवसर पर कार्यक्रम था। वो पहला लाइव शो था। उस समय मेरी शादी को चार साल ही हुए थे। पति का बहुत सहयोग रहा। तो उस वक़्त हम हारमोनियम ट्रंक में लेकर जाते थे। लोगों की बातों, प्रतिक्रियाओं से थोड़ा डरते भी थे। उस समय हमने शर्त रखी थी कि हमारे गाने के बीच अगर कोई सीटी बजा देगा या कोई शोर करेगा तो हम उठ के चले जाएँगे। तब संचालक ने ऐसा न होने का वादा किया था। हालांकि अब ऐसा नहीं लगता। सीटी से भी अब भय नहीं लगता। तब हमने भजन और गीत गाए क्यूँकि हमने रेडियो से लाइट म्यूजिक (सुगम संगीत) से ऑडिशन पास किया हुआ था जिसके तहत गीत, गजल और भजन आते थे। आज तीनों विधाएँ अलग कर दी गई हैं।

आपको लोक गायिका के रूप में पहचान कब और कैसे मिली? 

सबसे पहले एचएमवी में जो रेकॉर्डिग हुई वो संस्कार गीत था। 1971 में, तभी हमने लोक संगीत गाया। सच बोलें तो इतना कुछ समझता भी नहीं था तब। हमने तो वही गाया जो रोजमर्रा में शामिल था। जैसे भैया की शादी में नेग माँगने जो गाया था, जब द्वार छेंकती हैं ना बहनें? कि शादी करके बहु को लेकर आया है तो गृहप्रवेश से पहले भैया नेग दे दो तब अंदर जाने देंगे तो चाची मामी बोलीं, इकलौती बहन होने से क्या बिना मेहनत नेग पा जाओगी? गाओ तो मिलेगा। तो हमने उसी समय उन सबसे पूछ के जो गाया था वही पहली रेकॉर्डिंग हुई। "द्वार के छेकाई नेग पहिले चुक्कड़यों दुलरवा भैया, तब जाइह कोहबर अपन, हो दुलरवा भैया"। ग्रैमोफोन कंपनी एचएमवी ने टैलेंट हन्ट किया था। वो शहर-शहर घूम रहे थे। पहले राउन्ड में डिसक्वालीफाय हुए तो बहुत दुख हुआ, सोचा अब क्या करना, बिगाड़ लेते हैं आवाज, गला ही खराब कर लेते हैं। तब हमारे पति ने कहा दोबारा ट्राइ करेंगे, दोबारा मौक़ा माँगा, और मौका मिला। हमने अबकी खूब अच्छे से गाना गया। फिर वहाँ मौजूद लोगों ने हमसे कहा, वहाँ भीतर जाकर मिल लीजिए। हम जानते नहीं थे किसी को। वहाँ चमचम बनारसी साड़ी पहने, पान खाते हुए, कोई बैठी थीं, हमें दिग्गज सी कोई लगीं। किसी ने पूछा पहचानती हैं? ये बेगम अख्तर जी हैं। हम तो बस उनके रौब को देख पाये, पैर छू के प्रणाम किया तो वो बोलीं, 'बेटे आवास तो तुम्हारी अच्छी है, रियाज करोगी तो आगे जाओगी। हम ऑडिशन पास हुए और दो गाने एचएमवी में रेकार्ड हुए। जानती हो, वहाँ बेगम अख्तर कोई ऑडिशन सुनने नहीं आई थीं। वो तो संयोग था कि जब वो वहाँ थीं तो मेरा गाना हुआ, उन्होंने सुना और आशीर्वाद दिया। फिर हमने उनकी बहुत सी गजलों को सीखा और गाया। एक एलबम भी निकला है 'किसी की याद' जिसकी पहली गजल है "मौसम है प्यारा प्यारा, कितना रंगीन नजारा। 



मुझे लगता है कि शारदा जी की ग़ज़लों को लोकगीतों ने ढांक दिया। फ़िराक़ गोरखपुरी और गोपाल सिंह नेपाली को गाने के बाद भी शायद बहुत कम लोगों तक आपकी ग़ज़लें पहुंची और शायद इस वजह से ये मलाल रहा क्या कि आपके चाहने वाले बिहार, यूपी तक सिमटे ? 

- मलाल तो नहीं पर ये सच जरूर है। अब कहीं गजल गाना भी चाहूँ तो लोग लोकगीतों की फ़रमाइश करने लगते हैं। फोक के कई एलबम आए और सभी खूब हिट हुए। खूब प्यार मिला लोगों का। 
एक बड़ी दिलचस्प बात बताती हूँ, कि एक एलबम आया, दुलरवा भैया, तब विनायल रेकार्ड हुए करते थे। अब समस्या थी कि सुनें कैसे? प्लेयर था नहीं। तो हम अपने पति को कहते कि जाकर चौक पर बजवाइए। और फिर लाउड स्पीकर पर बजते उस गीत को हम अपने घर की बालकनी में सुनते थे। फिर बाद में एचएमवी की रॉयल्टी आई तब जाकर प्लेयर खरीदा। इसी से याद आया कि पहली रेकॉर्डिंग की रॉयल्टी 73 या 74 रुपए आई थी। बाँछे खिल गईं थीं... रे बाबा। हम इतने खुश, और 26 रुपए की लखनवी चिकन की साड़ी खरीद लिए थे। साड़ी का अब भी बहुत शौक है। बड़ी सी लाल बिंदी और बढ़िया साड़ी।

बारिश, बूंदें, खेत खलिहान उत्सव... कितना रंग और सूर से भर देते हैं ना जीवन को। हर भाव के तो हैं लोक गीत। कमाल का देश है भारत और उसकी सुरीली विरासत आपसे विदा लें उसके पहले कुछ और गीत गुनगुनाइए ताकि भीतर सुरीली आहट देर तक बनी रहें।

- "कैसे खेले जाइबु सावन में कजरिया। बदरिया घिर आई ननदी।" देखिये यहाँ पे नोंक- झोंक प्रीतम वाला न रहकर ननद के साथ हो रहा है- "तू तौ जात हओ अकेली, कोई संग न सहेली, गुंडे रोकीली है तोहरी डगरिया..." अब सावन में कजरी तो सब गाते हैं लेकिन भादी के भी खास गाने हैं "अरे रामा भादो रैन अंधियारी बदरिया छाई छाई रे रामा।" ऐसे ही झूला गीत हैं- जन्माष्टमी में खूब गाया जाता है... "झूला लागे कदंब की बारी झूले कृष्ण मुरारी न झुला लागे कदंब की डारी..."। अहा! आनंदित हूँ... कानों में भीरें गुंजन कर रहे, मन ऊँची पींगें भरने लगा है... 


        













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