मगन मन नाचता - विनय उपाध्याय
मगन मन नाचता
विनय उपाध्याय
उत्सव की आगोश में ठहरकर कलाओं की चहक-महक में मन रमता है तो जीवन, प्रकृति और संस्कृति की आपसदारी के अनेक अर्थ खुलते हैं। साज़ों की लय-ताल पर नाचती देह आदिम उल्लास के सुन्दर रूपक रचती है। आस्वाद के उथले धरातल पर ये पारंपरिक नृत्य चंद पलों का दिल बहलावा लग सकते हैं लेकिन जिज्ञासा की उँगली थामकर उनके अंतरंग में उतरें तो लालित्य और सौन्दर्यबोध की एक अनोखी, दिव्य-सी दुनिया के द्वार खुलते जाते हैं। मिसाल के तौर पर यह भीली गीत "मांदल्या मांदली बजाड़ रे घड़िक नाचि भाला रे/तारा हाथ नो चालो रे, मारा पाय नो चालो रे/तल्या तलिरे बजाड़ रे घड़िक नाचि भाला रे/फेफरया फेफरी बजाड़ रे घड़िक नाचि भाला रे/तारा मुहंडे चालो रे, मारा पायनो चालो रे/मांदल्या मांदली बजाड़ रे.../" भील नर्तक अपने साथी मांदल वादक से गुहार कर रहा है- तू मांदल बजा, हम थोड़ी देर नाच लेंगे। तेरे हाथ की थाप से मेरे पैरों की ताल मिल जाये। थाली और शहनाई वाले से भी उसकी गुहार है कि तुम अपने साज की सुरीली, लय भरी तान छेड़ो हम थोड़ी देर थिरक लेंगे। जाहिर है कि इस प्रेमिल मनुहार में जीवन के आनंद की आकांक्षा झर रही है।
साज़ और शरीर की यह आपसदारी, दरअसल जीवन और संगीत के अनटूटे आदिम रिश्ते की गवाह भी है। यह सिर्फ़ जनजातीय जीवन और परिवेश तक सिमटी रहने वाली वास्तविकता नहीं है, यह एक सनातन सच है जो किसी भी मनुष्य की चेतना में उठने वाली हिलोर है। अगर दुनिया के हर मनुष्य की देह में यह समान भाव से धड़क रहा है तो निश्चय ही यह प्रकृति के प्रति उसकी गहरी आपसदारी का ही इज़हार है। तब नृत्य को भूगोल या समुदाय की सीमाओं में नहीं बाँटा जा सकता। धरती, जल, आकाश, हवा और अग्नि से मिलकर हमारी देह का निर्माण हुआ है, तो यही पंचभूत नाद बनकर हमारी चेतना में बार-बार घुलते-मिलते हैं। हमारे राग- विराग, संयोग-वियोग, आँसू और मुस्कुराहटों, चुप्पियों और कोलाहल यानि जीवन की तमाम हलचलें इन्हीं से हैं। दरअसल साजों के आसपास सिमटा शरीर का यह सम्मोहन इस धारणा को पुष्ट करता है कि हमारे ही चित्त के राग-विराग इनकी ध्वनियों में बसे हैं। इन आवाज़ों के बेशुमार रंग हैं। इन आवाज़ों ने अपने घर बसा लिए हैं। हमारी देह, हमारा मन जब-जब अपनी ही आवाज़ों से गलबाहें करने मचलता है तब साज़ के इन घरों से सरगम फूटता है।
देह नाचने लगती है।
इधर गोंड जनजाति के दुलिया समूह के 'गुदुमबाजा' नृत्य ने भी सहसा ध्यान खींचा है। गुदुमबाजा धार्मिक और सामाजिक पर्व-प्रसंगों से जुड़ा है। एक दर्जन से भी ज़्यादा दुलियाजन गले में नगाड़े के आकार का तालवाद्य गुदुम टांगकर चमड़े की एक छड़ी से आघात करते हैं। शहनाई की लोक धुन पर विभिन्न ताल आवर्तन वातावरण की ख़ामोशी को अलौकिक संगीत में बदल देते हैं। छिंदवाड़ा, बैतूल, हरदा, खंडवा, होशंगाबाद के आसपास के इलाकों में कोरकुओं का कुनबा बसता है। उनकी जातीय स्मृति, विश्वास और आस्था यहाँ नृत्य में झंकृत होती है। स्त्रियों के हाथ में चिटकोला तथा दूसरे हाथ में रूमाल और पुरुषों के हाथ में घुंघरमाल तथा पंछा होता है। गादली, थापटी, ढांढल, होरोरिया, चिलौरी और ठाट्या नृत्य भी साज़-संगीत और शरीर की सोहबत में आनंद की आदिम यात्रा का सुख है।
भारत का कोई भी सूबा ऐसा नहीं, जो देह में उमगते नृत्य के उल्लास से वंचित हो। हम सबके भीतर आनंद का अनहद है। लय-ताल का ताना-बाना है। बस, प्रेम भरी एक मनुहार चाहिए।
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