अभिनय मेरी मुक्ति का स्वप्न : रंगकर्मी आलोक चटर्जी से विनय उपाध्याय की रंगवार्ता
अभिनय मेरी मुक्ति का स्वप्न
विनय उपाध्यायः आपको कब लगा कि आपके भीतर एक अभिनेता है जो रंगमंच पर जाना चाहता है?
आलोक चटर्जी: मेरा जन्म दमोह में हुआ है। माँ मेरी रबीन्द्रनाथ टैगोर के बेटे से संगीत सीखती थी देहरादून में। पिताजी ग्वालियर मुरैना शिवपुरी में शेक्सपियर के नाटक अंग्रेजी में करते थे, जब पढ़ते थे। तो ज़ाहिर है कि मुझे कुछ चीज़ें विरासत में जेनेटिकली मिल गयीं। तो मैं जब 5 वर्ष का था तो दुर्गा पूजा के अवसर पर रबीन्द्रनाथ टैगोर की कविता प्रार्थना मेरी माँ ने मुझे याद कराके दुर्गा अष्टमी के दिन मंच पर खड़ा कर दिया कि इसका पाठ करो। तो मंच पर मेरा पहला पदार्पण कविता के माध्यम से हुआ। दुर्गा अष्टमी के दिन पर हुआ और माँ के द्वारा हुआ। उसी साल फिर स्कूल में 'भारत माता' नाटक में डॉक्टर का रोल मिला जिसमें एक ही डायलॉग था- "मेरे देश के रोगी जनों का इलाज कौन करेगा? माँ, मैं करूँगा, मैं करूँगा। तो उसके साथ शुरू हो गया। लगभग पचपन- छप्पन साल हो गए इस बात को। चल रहा है सिलसिला।
बचपन में इस तरह का एक अलग कौतूहल होता है कि मंच पर जाएँ। कुछ करें। लोग देखें। शाबाशी मिले। लेकिन बहुत ही सधे क़दमों से रंगमंच पर प्रवेश करना, उसको ठीक ढंग से समझना, गम्भीरता से नाट्य कला को समझकर अपना भविष्य बनाना यह कब सोचा?
- मेरे साथ बहुत छोटी उम्र में शुरू हुआ यह सिलसिला लगातार इसलिए जारी रहा कि दमोह में मैं जहाँ मिशन स्कूल में पढ़ता था। वहाँ के टीचर्स ड्रामा करवाने में बड़ी रुचि रखते थे तो जितनी जयन्तियाँ होती हैं प्रेमचंद जयन्ती, निराला जयन्ती, स्वतंत्रता जयन्ती, गणतंत्र जयन्ती सारी जयन्तियों पर छोटे-छोटे नाटक करवाते थे। ऐसे आठवीं तक मैं करता गया। नौवी कक्षा में मैं जबलपुर आया। पिताजी का ट्रांसफर होने से। पिताजी रेलवे में गार्ड थे। वहीं हम बुन्देलखण्ड से एकदम सेंट थॉमस जैसे अंग्रेजी माध्यम में चले गए। जहाँ हॉलैंड के प्रोफेसर एमल्शन हमारे प्रिंसिपल होते थे। डच प्रोफेसर थे वो। सेंट थॉमस में नाटक ज़्यादा नहीं हुए। लेकिन जब मैं कॉलेज पहुँचा तो फर्स्ट ईयर में युवा उत्सव में मुझे बेस्ट एक्टर का अवार्ड मिला। वह देखने के बाद ज्ञानरंजन जी के द्वारा हरिशंकर परसाई जी का एक मैसेज आया कि अगर तुम्हें नाटक करना है तो सिर्फ़ कॉलेज में नाटक करने से कुछ नहीं होगा किसी संस्था के साथ जुड़कर नाटक करो। तो मैंने कहा मुझे नहीं मालूम कि जबलपुर मैं कौन सी संस्था है। बाद में मालूम हुआ कि मिलन है, कचनार है, मित्र संघ है, विवेचना है। तो बोले कि विवेचना संस्था से हम लोग जुड़े हुए हैं। चाहे तो वहाँ चले जाओ। एक प्रोफेसर प्रभात थे हमारे जियोलॉजी डिपार्टमेंट के। उनके थ्रू ज्ञान जी, ज्ञान जी के थ्रू परसाई जी एंड देन विवेचना और अलखनंदन जी से परिचय हुआ। और वह मेरे गम्भीर शौक़िया रंग कर्म की शुरुआत कही जा सकती है।
वाह! लेकिन यहीं से द्वन्द्व भी शुरू होता है। शौक़ और रोज़ी के बीच। बड़ी इच्छाशक्ति चाहिए इस समय।
- मैं समझ गया आपकी बात। दरअसल मैंने हायर सेकेंड्री पास किया उसके बाद उस समय प्री मेडिकल होता था। पीएमई। तो पीएमई में फर्स्ट अटेम्प्ट में मेरा मेडिकल कॉलेज में सिलेक्शन हो गया। और में एक हफ़्ते जबलपुर मेडिकल कॉलेज गया। फिर मैं अपने पिताजी से कहा कि मुझे नहीं बना डॉक्टर क्योंकि मोटा चश्मा लग जाएगा। विल्स सिगरेट की डब्बी हाथ में होगी। सफेद हाफ़ कोट होगा। मुझे नहीं बनाना यह सब। मुझे तो नाटक ही करना है। चूँकि मेरे पिताजी स्वयं नाटक करते थे। जानते थे। तो उन्होंने कहा ठीक है, तुम दो भाई हो। बहन तो तुम्हारी है नहीं। तुम्हें कोई चिन्ता नहीं करनी है। एक काम करो, तुम नाटक ही करो। लेकिन गधे बन के नाटक करके क्या करोगे? मैंने कहा- मैं बीएससी कर लेता हूँ। बीएससी कर लेने से 2 महीने पढ़कर मैं पास भी हो जाऊँगा। और साल भर में नाटक भी करूँगा। तो मैंने अपना मेडिकल का ट्रेंड छोड़कर चुना ही रॉबर्टसन साइस कॉलेज जबलपुर को इसीलिए कि मुझे नाटक करना था। और थर्ड ईयर तक आते-आते दिमाग में ये आया कि मुझे नौकरी नहीं करनी है कहीं। मुझे नाटक ही करना है। लेकिन मेरे सामने कोई रास्ता नहीं था कि नाटक करना है तो कैसे करना है? तो 1980 में ग्रेजुएट हुआ। और 6 महीने बीते इस उहापोह में कि क्या करूँ, क्या ना करूँ? हेमलेट का 'टुबी और नॉट टू बी'। इस बीच रेलवे से कमर्शियल इंस्पेक्टर का साक्षात्कार का कॉल आया। डेज केमिकल से मार्केटिंग एग्जीक्यूटिव का आया। और उषा सिंगर मेरिट कम्पनी से मार्केटिंग सेल्स हेड का आया कि आप ज्वाइन कर सकते हैं। और चौथा कॉल आया अख़बार का कि भोपाल में भारत भवन बन रहा है। इसमें रंगमण्डल की स्थापना होनी है। इच्छुक युवा आवेदन करें। मैंने तीन सरका दिए और रंगमण्डल के लिए आवेदन कर दिया। मेरा इंटरव्यू कॉल आ गया। और मैं रंगमण्डल का इंटरव्यू देने आया और फिर यहाँ कारन्त साहब से मेरी मुलाक़ात हुई। वे ही मेरे फ्रेंड, फिलॉसाफर, गाइड और गुरु हैं। उनके हाथों वास्तविक दीक्षा 1982 से शुरू होती है।
कारन्त जी जैसे मूर्धन्य रंगकर्मी ने आपकी प्रतिभा पर जब मोहर लगा दी तब क्यों ज़रूरी समझा आपने कि आपको राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रशिक्षण प्राप्त करना है?
- असल में हुआ ये कि जब दो साल रंगमण्डल के हो गए और मैं लगभग सौभाग्य से उसके अधिकतर नाटकों में नायक था। चतुर वाणी, अंधायुग, हयवदन, आधे-अधूरे ये सारे नाटक मैं कर चुका था। मुझे कारन्त जी पढ़ने के लिए चहुत ज़ोर देते थे। बोले- "अगर तुम्हें थिएटर में जीवन गुज़ारना है तो कविता, यात्रा संस्मरण, खोज, वैज्ञानिक कथाएँ, लुप्त कथाएँ, गुप्त कथाएँ, जो भी मिले पढ़ना पड़ेगा। बिना पढ़ें नहीं चलेगा। तो मेरा सवाल ये रहता था कि बाबा आज यहाँ फेस्टिवल है, कल वहाँ फेस्टिवल है, आज वहाँ टूर है कल वहाँ टूर है। हम तो दिन-रात सफ़र में ही हैं। तो हम पढ़ें कब? कंसेंट्रेट करके पढ़ें कब? तो मेरे दिमाग में आया क्यों ना राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जाऊँ। मैंने कारन्त जी से कहा कि मैं जाता हूँ। पहले उन्होंने मुझे रोकने के कुछ तर्क दिए फिर मेरी ज़िद पर कहा- "अच्छा ठीक है जाओ। ये है कि उस साल सिलेक्शन कमेटी में कारन्त जी थे, मोहन महर्षि थे, राम गोपाल बजाज थे, नेमीचंद जैन थे, एम के रैना थे। कारन्त जी इंटरव्यू कमेटी में नहीं पहुँचे। मैं जब पहुँचा तो मोहन जी ने मुझसे पूछा कि हाउ इज कारन्त? मैंने कहा ही 'इज फाइन'। तो बोले- "नहीं कल रात को फोन आया कि उनकी तबीयत ख़राब हो गई है। वो नहीं आ पा रहे हैं।" तो मैंने कहा कि "मैं तो कल रात को ही उनके पाँव छूकर ही स्टेशन पर आया था। तब तक तो ठीक थे। पता नहीं बाद में क्या हुआ?" इन्टरव्यू देकर जब मैं लौटा मेरा फाइनल वर्कशॉप के लिए सिलेक्शन हो गया। भोपाल लौटा तो मैंने देखा कारन्त जी खिलखिला के हँस रहे हैं। प्रोफेसर कॉलोनी के अपने बंगले के झूले पर बैठ के। मैंने कहा- "आप तो बिल्कुल ठीक हैं।" तो बोले "तुम्हारे लिए मुझे झूठ बनना पड़ा। देखो, अगर मैं सिलेक्शन कमेटी में होता और तुम्हारा सिलेक्शन होता तो सब कहते कि कारन्त ने ही तुम्हारा सिलेक्शन करवाया और अगर दुर्भाग्य से तुम्हारा सलेक्शन नहीं होता तो तुम ही कहते कि कारन्त ने मुझे रोक दिया। तो मैं क्यों भला-बुरा बनूँ। तुम जानो तुम्हारा काम जाने। सिलेक्शन हो गया, बधाई हो। लेकिन अभी भी कह रहा हूँ फाइनल वर्कशॉप देके वापस रंगमण्डल में ही रहो। मत जाओ। मैंने कहा- "बाबा अब जाने दीजिए। उन्होंने कहा- जाओ। फिर मैंने एनएसडी 1984 में दाखिला लिया और 87 में पास किया।
आपकी प्रतिभा को गढ़ने में एनएसडी का क्या योगदान रहा?
- एनएसडी यानि एक एकेडमिक एनवायरमेंट विद क्रिएटिविटी। एक ऐसा वातावरण था जिसमें 24 घंटे आपको सोचना भी थिएटर था। करना भी थिएटर था। लिखना भी थिएटर था। पढ़ना भी थिएटर था। खाना भी, ओढ़ना भी, पीना भी। और जब नसीर भाई (नसीरुद्दीन शाह) पहली बार आए हमारे साथ एक्टिंग वर्कशॉप लेने के लिए तो उन्होंने यह भी कहा कि नहाते समय तुम लोग को यह एक्सरसाइज़ करनी है और आगे फिर परफॉर्म करना है। खाना खाने का 45 मिनट का ब्रेक है। खाना खा लो और उस बीच में से तैयार करके आना और लौटकर आकर ये कर देना। तो आपको और कुछ में रहना ही नहीं है। दिल्ली में सारे समकालीन महत्वपूर्ण निर्देशकों के नाटकों को देखना जिसमें पणिक्कर हों या हबीब साहब हों, रुद्रप्रताप गुप्ता हों, श्यामानंद जालान हों। कारन्त साहब, बंसी जी उस समय युवा थे। एम के रैना थे। अनुराधा कपूर युवा टीचर थीं। कीर्ति जैन युवा टीचर थीं। तो पूरा माहौल मिलता था कि कहीं भी जाकर आपकी प्रतिभा रिच हो सकती है। एनएसडी ने मुझे एक बौद्धिक दृष्टि दी। मुझे पढ़ने-लिखने का समय दिया। और एक क़िस्सा एनएसडी में भी मेरे बारे में बताते हैं शोभा भी बताती है कि एक बार तीन दिन की छुट्टी थी। तो उसने प्लान बनाया कि तीसरे दिन मेरे से मिलकर आगे भोपाल चली जाएगी। तो वो जब आई तो उसे पता चला कि आलोक चटर्जी फ्राइडे सेटरडे संडे हॉस्टल के अपने कमरे से निकले नहीं है। उनके नाश्ते और खाने को कोई ना कोई जाकर पहुँचा दिया है। और वह सिगरेट के पैकेट लेकर बैठे हैं। और मोहन राकेश रचनावली और एंटोन चेखव के नाटक और शेक्सपियर समग्र और निराला की कविताएँ और रघुवीर सहाय यह सब कुछ ले गए हैं। और वो तीन दिनों में सब मैंने पढ़ लिया था। तो मेरे अन्दर वो भूख आज भी उतनी ही है।
तो एनएसडी ने परिष्कृत किया आपकी रंग प्रतिभा को। आमतौर पर एनएसडी के बाद दो दिशाएँ होती हैं। या तो आप वापस अपने रंगमंच की चौखट में लौट आएँ या ग्लैमर के आसमान की उड़ान भरें। यानि, सिनेमा और दूरदर्शन। आपके बहुत सारे सीनियर वहाँ होते ही हैं। आपने नाम लिया नसीरुद्दीन शाह का। आपके बैचमेट तो ओमपुरी भी थे। और भी बहुत सारे सितारे जो आज हम देखते हैं एनएसडी पास आउट। आपने रंगमंच पर लौटना क्यों गवारा किया?
- चाहता, तो मैं वही करता। थिएटर मेरी चॉइस है, मेरी मजबूरी नहीं। क़िस्सा यह है कि कारन्त जी ने मेरा पता किया कि एनएसडी में मेरा चयन हो गया। कहा- "अब तुमसे कैसे मिलेंगे हम? तुम तो चले जाओगे सिनेमा में।" मैंने कहा- "मैं क्यों सिनेमा में चला जाऊँगा।" बोले- "गिरीश कर्नाड चला गया। नसीर चला गया। राज बब्बर चला गया। तो तुम भी ठीक एक्टर हो तुमको भी काम मिलेगा तो तुम क्यों नहीं जाओगे।" मैंने कहा- "मैं आपसे वादा करता हूँ कि मैं न एनएसडी रिपेर्टरी में जाऊँगा और ना ही बॉम्बे जाऊँगा। मैं लौटकर रंगमण्डल आऊँगा और 25 साल में कैमरा फेस नहीं करूँगा। 25 साल में कोई भी काम आएगा मैं नहीं करूँगा।" और यह हुआ कि एनएसडी थर्ड ईयर में ही मुझे मणिपाल साहब ने 'बाज बहादुर रूपमती' में बाज बहादुर का रोल ऑफर किया। चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने मुझे चाणक्य में चंद्रगुप्त का रोल ऑफर किया। एक और फिल्म थी मणिकौल की इडियट में मेन कास्ट में बॉटम का रोल करने वाला था। मैने सबको हाथ जोड़े। मैंने कहा कि नहीं, मेरा तो टूर है पटना अररिया और पूर्णिया का। तो मैं वहाँ जा रहा हूँ। और में छोड़कर चला गया। मुझे यश चोपड़ा जी ने बेस्ट एक्टर अवार्ड लेते समय 'चाँदनी' भी ऑफर की थी। और कहा था आप यहीं रुक जाइए। यहीं लोधी गार्डन से शूटिंग शुरू हो रही है। बजाज साहब उस समय थे। वो साक्षी है इस बात के। मैंने कहा- नहीं सर, मैं तो जा रहा हूँ। मुझे अभी नहीं करना।
चलिए लौटते हैं रंगमण्डल की ओर। कैसे स्वरूप ग्रहण किया रंगमण्डल ने?
- कहाँ-कहाँ से हम आए थे आपको भी पता है। हम लोग गुना से आए थे। जबलपुर से आए थे। बैतूल से आए थे। रायपुर से आए थे। बिलासपुर से आए थे। भोपाल के कुछ लोग थे। इन्दौर-उज्जैन के लोग भी थे। तो सब अपने-अपने ग्रुप थिएटर से आए थे। किसी को वेल ट्रेंड एक्टर नहीं कह सकते थे आप। कारन्त जी चाहते भी नहीं थे कि एनएसडी का कोई ट्रेंड एक्टर रंगमण्डल में हो। इसलिए उन्होंने सिर्फ़ अलोपी वर्मा जी को सेट डिज़ाइन के लिए और लाइट डिज़ाइन के लिए सुरेश भारद्वाज को और प्रोडक्शन के लिए जावेद जैदी को रखा। ऐज एन एक्टर किसी एनएसडी वाले को नहीं रखा। क्योंकि वह बोलते थे कि मैं एनएसडी छोड़कर इसलिए नहीं आया कि एनएसडी वालों को लेकर एक रंगमण्डल बनाऊँ। मैं एनएसडी छोड़कर इसलिए आया है कि मैं अनगढ़ मिट्टी के साथ काम करूँ। तो मुझे गुना का एक आदमी चाहिए जो हनुमान जी के मन्दिर में बैठकर भजन भी गाता है। मुझे छत्तीसगढ़ का एक किसान चाहिए जो शाम को बीड़ी भी पीता है, और गाना भी गाता है, नाचा का। और मुझे उज्जैन में कालिदास अकादमी का संस्कृत नाटक देखने वाला दर्शक भी जो अभिनेता हो। सॉन्ग एंड ड्रामा डिविजन से भी लोग थे। रायपुर यूनिवर्सिटी से भी लोग थे। हम लोग जैसे भी थे जो अलख जी के साथ सीरियस थिएटर करके जबलपुर से आए थे। और कुछ लोग ऐसे थे जिन्होंने थिएटर किया ही नहीं था ज़्यादा। तो कारन्त जी ने कहा कि तुम्हारी शक्ल देखकर लगता है कि तुम कुछ कर सकते हो। अगर कुछ कर सकते हो तो ठीक है नहीं तो 3 महीने का पीरियड है 13 महीने बाद हम आपको नहीं रखेंगे। या तो प्रूफ कर दो अपने आप को। तो ऐसे 17 लोगों को लेकर रंगमण्डल शुरू हुआ था।
प्रशिक्षण, अभ्यास.... क्या था तौर तरीक़ा?
- हम लोगों के साथ बाबा पूरे समय सक्रिय रहते थे। फिर देश के नाट्यकर्मियों का आना शुरू हुआ। बादल सरकार भी आए। नौटंकी के उस्ताद भी आए। रिहर्सल करो और शाम को शो करो। उस दौरान हम लोगों ने आल्हा भी सीखा। नाचा भी सीखा। माच भी सीखा। पूर्वरंग में हम लोगों को इसका आधा घंटे का परफॉर्मेंस देना पड़ता था कि आपने क्या सीखा। साथ में फिर हयवदन' चल रहा है। 'आधे-अधूरे', 'अंधायुग' भी चल रहा है। फिर एक साथ तीन ऑडिटोरियम में सात बजे तीन नाटक एक साथ शुरू हो रहा है। और तीनों हाउसफुल हैं। तीनों टिकटेड है। थिएटर की वो पराकाष्ठा कारन्त जी ने रंगमण्डल में की थी। 'घासीराम कोतवाल' शो और पूरा बहिरंग 7 बजे भरा रहता था। कारन्तजी ने हमसे बहुत टूर करवाये। कहते थे कि प्रवास में एक दूसरे को ज़्यादा पहचानोगे। लेकिन जब एक कमरा शेयर करना पड़ेगा तो सुबह बाथरूम पहले कौन जाएगा को लेकर झगड़ा होगा। एक आदमी को लेट नाइट लाउड म्यूजिक सुनने की आदत है। दूसरे को 8 बजे सो जाने की आदत है। एक आदमी को रात को बियर पीना अच्छा लगता है। दूसरे आदमी को सवरे पूजा करनी अच्छी लगती है। तो ऐसे लोग जब रूम में रहेंगे और 20 दिन टूर करोगे तब पता चलेगा इंसानियत, इंसान, मानवी व्यवहार क्या होता है? तो मार्केट में जाकर कैरेक्टर ऑब्जर्व करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। ये ट्रेनिंग आज तक काम कर रही है। रंगमण्डल से निकले हुए लोग आज भी भोपाल और अन्य जगहों पर बढ़िया सक्रिय हैं। आप जानते ही हैं।
प्रतिभा का एक पैमाना तो रंगमण्डल ने गढ़ा ही था लेकिन उस समय एक प्रतिपक्ष भी रंगमण्डल के सामने खड़ा हुआ। ऐसा सुनते हैं कि बहुत सारे लोगों ने इसकी आलोचना भी की। शौक़िया रंगमंच कहीं न कहीं उससे आहत हुआ। इस भ्रमजाल को थोड़ा साफ़ करिए।
- हुआ ये था कि भोपाल उन शहरों में था जहाँ रंगमण्डल बनने के 6 साल पहले कारन्त जी 2 वर्कशॉप कर चुके थे। 73-74 और 74-75 में और उससे पापिया दास गुप्ता से लेकर रीता वर्मा, राजीव वर्मा जी जैसे लोग निकलकर काम कर रहे थे। वेणु गांगुली, प्रशांत खिरवड़कर। दो समूह बने 'रंगशिविर' और 'रंगायन'। उन्होंने गम्भीर रंगकर्म करना शुरू किया। तो ये कारन्त जी की उन दोनों वर्कशॉप से ही हुआ। रंगमण्डल ने जब पूरे मध्य प्रदेश का टूर किया तो बालाघाट से लेकर बीना और इटारसी से लेकर होशंगाबाद, गुना से लेकर अशोकनगर तक में शौक़िया रंगग्रुप बने। नाटकों को देखने वालों में से बने। उनको ग्रुप चलाते हुए 25 साल हो गए। नए रंग दल बने ना कि शौक़िया रंगकर्म ख़त्म हुआ। हाँ, ये ज़रूर है भोपाल में जब रंगमण्डल नाटक करता था तो वह एक भव्यता के साथ करता था। क्योंकि प्रोफेशनल थिएटर था। तो सेट में, लाइट में, कॉस्ट्यूम में, मेकअप में कोई कंप्रोमाइज तो होगा नहीं। तो 40 हज़ार रुपए 30 हज़ार रूपये उस समय बजट होता था नाटक का और उस समय शौक़िया रंगकर्म डेढ़ हज़ार रुपए में हो रहा है। लोगों ने नई चीज़ के प्रति आकर्षण दिखाया। टिकट लेकर नाटक देखना शुरू किया। क्योंकि उनको एक संतोष का अनुभव होता था। शौक़िया रंगमंच तो वो देख ही रहे थे जो हो रहा था। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि भोपाल में भी उसका कोई बहुत सारा नुकसान हुआ। यह ज़रूर है कि कुछ समय के लिए, शौक़िया रंगकर्म यहाँ का ठहर गया और फिर यह प्रतिपक्ष इसलिए आता है क्योंकि रंगमण्डल सरकारी था। यह सवाल तो दिल्ली में आज भी है। और मैं जब विद्यार्थी था तब भी था। और जब कारन्त जी विद्यार्थी थे एनएसडी के तब भी था कि एनएसडी ने दिल्ली का थिएटर बर्बाद कर दिया है और दिल्ली के महान महान रंगकर्मियों की प्रतिभा को पल्लवित नहीं होने दिया है। जबकि दिल्ली में कौन सा थिएटर होता है मुझे मालूम नहीं। दिल्ली का थिएटर मतलब गाज़ियाबाद का थिएटर। फ़रीदाबाद का थिएटर, शहादरा का थिएटर दिल्ली का कौन सा? दिल्ली का मतलब श्रीराम थिएटर, एलटीजी थिएटर या एनएसडी का थिएटर, एनएसडी रिपेर्टरी का थिएटर। तो ये सवाल हमेशा होता है कि सरकारी सुविधा ने हमारी सृजनात्मकता को ख़त्म कर दिया। किसी भी जगह काम करने के मौक़े सबको नहीं मिलते। यह बात बाद में लोगों को समझ में आई कि प्रोफेशनल थिएटर का उदगम शौक़िया रंगकर्म है। रंगमण्डल वाले आए कहाँ से थे? वही शौक़िया रंगमंच से ही तो आए थे। किनके साथ काम कर रहे हैं? शौक़िया रंगमंच में ही तो काम कर रहे हैं। ये रंगमण्डल का योगदान कहा जाना चाहिए।
हम सबने रंगमण्डल भारत भवन का सुनहरा दौर देखा। आज भी उसके नाटकों को नज़ीर की तरह पेश किया जाता है। लेकिन कहते हैं- "हर पूर्णता को जीवन में अधूरेपन से गुज़रना होता है।" सो, रंगमण्डल भी इस नियति से अछूता नहीं रहा। दुर्भाग्य से बहुत लम्बी उम्र तय नहीं कर पाया रंगमण्डल। विवाद, परस्पर कलह, अहंमन्यता, प्रशासनिक दाँव-पेंच का अजीब दौर रहा वो।
- दरअसल, ये भी विचित्र क़िस्सा है कि रंगमण्डल में जब हबीब साहब आए बतौर डायरेक्टर तब कलाकारों और प्रशासन के बीच में विवाद शुरू हुआ। मामला न्यायालय तक गया। मैं उसके 2 साल पहले रंगमण्डल छोड़ चुका था। यह शुरू हुआ 92 में। और डिसीजन आया 97 में। लेकिन मैं अक्टूबर 90 में रंगमण्डल छोड़ चुका था। कारन्त जी ने मुझे कह दिया था कि अब निकलो। तुमने 3 साल एनएसडी को दे दिए। 6 साल यहाँ दे दिए। अब अपना कुछ करो। मैंने एक्टिंग टीचर के रूप में एनएसडी में पढ़ाना शुरू कर दिया था। एनएसडी की सिलेक्शन कमेटी में मैं आ गया था। संगीत नाटक अकादमी के यंग डायरेक्टर प्रोजेक्ट में मैंने 'ध्रुवस्वामिनी' कर दिया था। टैगोर का राजा कर दिया था। जब रंगमण्डल का विवाद शुरू हुआ तब तक मैं अपने आपको राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने में सफल हो चुका था। और 97 तक तो काफ़ी आगे गया था।
इस बीच आपके जीवन में एक और घटना घटती है विवाह की और आपके जीवन में आती हैं शोभा चटर्जी। जो कि ख़ुद रंगमण्डल में अभिनेत्री थीं।
- ऐसा हुआ कि रंगमण्डल में हम लोग दोनों ही जबलपुर से आए थे सेलेक्ट होकर। लेकिन हमारी कोई बातचीत 8-9 महीने तक आपस में नहीं थी। दूसरी लड़कियों से थी। उनकी भी दूसरे लड़कों से बातचीत थी लेकिन हमसे कोई बहुत ज़्यादा बातचीत नहीं थी। हेलो हाय जैसा ही था। लेकिन आठवें नौवें महीने में बेरी जॉन आए और उन्होंने 'दो कश्तियों का सवार' नाटक डायरेक्ट करवाया। दूसरा नाटक करवाया 'एक्सीडेंटल डेथ ऑफ एन अनार्किस्ट'। उसमें एक ही लड़की का रोल है रिपोर्टर। वह उन्होंने दिया शोभा को। तो इस तरह से भी हम लोग दो ग्रुप में बँट गए। लेकिन जब बैरी जॉन चले गए तो 'एक्सीडेंटल डेथ' के शोज बन्द हो गए। लेकिन 'दो कश्तियों का सवार' के 18 शो मिले। वह रोल करने वाली अभिनेत्री नीला हेमंत थी रायपुर की। वह रायपुर लौट गयीं तो कारन्त जी ने मुझे कहा कि पहला शो परसों है। तुम लोग बस में साथ में सीट में बैठो। तुम उसको पूरा रोल समझाओ। डायलॉग उसको रटवाओ। रीडिंग करो और शो आप दोनों को करना है। 28 दिनों का टूर था। उस टूर में ही कुछ शुरू हुआ। कुछ अंकुरित हुआ। रसायन का परस्पर मेल हुआ। फिर लौट के आके 'आधे अधूरे' के शोज हुए अलख जी के निर्देशन में। तभी हम दोनों की बॉन्डिंग अच्छी बनने लगी थी। और 'हयवदन' तक आते-आते क्लियर हो गया। हम दोनों इस मामले में उस ज़माने के प्रेमी थे कि हम बड़े नैतिक थे। हम रात को ही इन्दौर बिलासपुर एक्सप्रेस ट्रेन से जबलपुर लौटे अपने पेरेंट्स को बताया। अगले दिन फिर हम वापस रंगमण्डल में आ गए। क्योंकि हम नहीं चाहते थे कि रिश्ते की सार्वजनिक चर्चा कोई करे। हमारे पैरेंट्स को पहले से मालूम होना चाहिए। फिर एनएसडी के सेकंड ईयर की छुट्टियों में मैंने शादी की। साल 1986 तारीख 23 जून। हनीमून के बाद में थर्ड ईयर में गया।
रंगकर्म की कुंडली में तो संघर्ष है लेकिन उसके समानान्तर एक जीवन है जो चाहता है कि मुझे भी जियो। किस तरह से अपने सपनों को आपने बचाए रखा?
- विनय भाई, लगभग 8 वर्षों का एक ऐसा समय था जिसे हर तरह से आप सूखा अकालग्रस्त कालखण्ड कह सकते हो। सिवाय इसके कि मैं काम कर रहा था। जहाँ तक व्यक्तिगत जीवन की बात है मेरा स्वभाव आर्थिक दृष्टि से ठीक ना रहने की वजह से कुछ चिड़चिड़ा हो गया था। कुछ एरोगेंट भी हो गया था। आर्थिक स्थिति इतनी ख़राब थी कि 3 महीने 4 महीने घर की बिजली का बिल ही नहीं दे पा रहे हैं। बेटा स्कूल जा रहा है तो उसके स्कूल की फ़ीस नहीं दे पा रहे हैं। तो एक बहुत दरिद्र की स्थिति थी आर्थिक रूप से। लेकिन काम के स्तर पर मैं तब भी एनएसडी में पढ़ाने जा रहा था। जो 10 हज़ार रुपए मिलते थे तो उसमें से 5 हज़ार रुपए शोभा को देकर 5 हज़ार नाटक के लिए रख फिर अपने थिएटर ग्रुप 'दोस्त' से नया नाटक कर देता था। फेस्टिवल कर देता था 5 हज़ार रुपए में रवीन्द्र भवन में। उस समय किराया कम था। तो इस तरह से काम के स्तर पर मैं लगातार आगे बढ़ रहा था। शोभा भी साथ में काम कर रहीं थी। बच्चा छोटा था। आर्थिक रूप से बहुत ही फैला हुआ मामला था। उस समय बहुत सारा कर्ज़ा भी मेरे ऊपर हो गया था। बाद में धीरे-धीरे चुकाया। लेकिन कर्ज़े के जाल में फँसा। फिर एक समय आया कि अंकुर जी ने मेरी बड़ी मदद की। कीर्ति जैन डायरेक्टर थीं और वह सीधे कीर्ति जैन के कमरे में ले गए और कहा आलोक है और इनको काम दीजिए। उस समय वो एक्सटेंशन की हेड थीं। अंकुर जी ने मुझे उस समय तीन महीने में 6 वर्कशॉप दी। बोले तुम्हारा आधा कर्ज़ा इससे उतर जाएगा। आधे का आगे देखते हैं। पहले ये वर्कशॉप्स कर लो। तो पहला वर्कशॉप अल्मोड़ा, दूसरा इन्दौर, तीसरा गोरखपुर, चौधा पिथौरागढ़... और फिर सिलसिला चलता रहा। तो दैट्स हाउ उन्होंने बहुत मदद की। रामगोपाल बजाज साहब ने मेरी मदद की। तुम स्कूल में पढ़ाने आओ। इन लोगों ने मेरे बुरे वक़्त में ये देखा कि इस आदमी ने काम करना नहीं छोड़ा है। यह काम कर रहा है। यह घर नहीं बैठ गया है। इसके हर महीने डेढ़ महीने में कोई नाटक प्रोडक्शन होते रहते हैं। ये एक्टिव है। स्थिति ख़राब है। समय ठीक नहीं चल रहा है इसका तो थोड़ी मदद करते हैं। ऐसी मदद के कारण ही आज हम यहाँ बैठे हैं।
'मृत्युंजय' का कर्ण का किरदार भुलाए नहीं भूलता। 'नट सम्राट' को कैसे भूल सकते हैं। इस बीच क्या आपको लगता है कि आलोक चटर्जी एक निर्देशक भी बन सकता था, स्क्रिप्ट राइटर भी बन सकता आ।
- असल में रंगमण्डल में जब मैं था तो मुझे ज़्यादातर नाटकों में मुख्य भूमिका मिली। बंसी कौल से लेकर श्यामानंद जालान और रूद्र दा से लेकर बादल दा और कारन्त साहब सबको मेरा काम बड़ा पसन्द आया। लगा कि मुझे अभिनेता के रूप में ही विकसित होना है। एनएसडी गया ही था इसलिए। मुझे एक सिस्टम के तहत एक्टिंग को समझना था ताकि मैं एक्टिंग टीचर के रूप में उसको कभी समझा सकूँ। उसके लिए मुझे पहले ख़ुद उन चीज़ों को जानकर अपने को उससे गुज़ार कर उसमें सिद्धि प्राप्त करनी थी। उसके बिना तो हो ही नहीं सकता था। एनएसडी ने उस मामले में बहुत मदद की। जैसे ब्रेख़्तीयन थिएटर जिन्होंने हमको पढ़ाया उनका नाम था हेलमिश। वो बरसुंद के असिस्टेंट डायरेक्टर थे। उनसे हमने ब्रेख़्त सीखा है। हमने डॉक्टर कमलेश दत्त त्रिपाठी, पणिक्कर और कारन्त साहब से नाट्यशास्त्र समझा है। बैरी जॉन, रोचिन दास और मोहन महर्षि से एस्थेटिक समझा। पोएटिक रियलिज्म काव्यात्मक यथार्थवाद रामगोपाल बजाज साहब समझाते। पाँव को ऐसे मोड़ने से और भँवों को यूँ करने से ही अर्थ बदल जाएगा। वो बोलते थे मुझे इन चीज़ों से कोई मतलब नहीं है। मैं समाज को क्या दे सकता हूँ एक अभिनेता के रूप में। सोशल रियलिज्म क्या है. आपके डायलॉग में। क़िस्सा है कि वे एक शूटिंग कर रहे थे। शबाना आज़मी और पंकज कपूर भोपाल के नज़दीक सीहोर में कोई शूटिंग में आए थे। यह भारत भवन अन्तरंग में आकर पीछे बैठ गए और रिहर्सल देख रहे थे और उस समय वह सीन था कि पहाड़ों में गुरुशा घूम रही है और बच्चे को दूध पिला रही है। तो फ्रिड्स बेनिविट्ज ने शबाना से कहा कि 'यू डू इट' क्योंकि उन्होंने सत्यु के प्रोडक्शन में उसी समय किया था। तो शबाना जी ने उस सीन को परफॉर्म किया। तो बेनिविट्ज ने कहा कि नाउ यू सी व्हाट आई विल डू। तो उन्होंने विभा मिश्रा जी को बोला कि तुम करो तो अपना सीना ब्लॉकिंग करवाया। तो दर्शकों से पीठ करके बच्चे को दूध पिला रही है। उसके बाद एक दूध वाले से दूध ले रही है तो शबाना आज़मी ने पूरा दूध पी लिया। बेनिविट्ज ने विभा जी से कहा कि आप दूध पूरा मत पिओ। शबाना जी से कहा कि सोशल रियलिज्म क्या है मालूम? वो अपने लिए अलग से दूध ख़रीदना अफोर्ड नहीं कर सकती। पहाड़ों पर उसे चलना है इसलिए दूध वो पिएगी आधा। दूसरा छोटे बच्चों को इतना ज़्यादा दूध दे दोगे तो उसका पेट ख़राब हो जाएगा। यू डोंट नो द बिहेवियर एंड एनाटॉमी ऑफ ए चाइल्ड तो बेनिविट्ज ने उसके सामाजिक यथार्थ को हमको ज़्यादा समझाया। ये अलग-अलग निर्देशकों में अलग-अलग पैटर्न जो होता है।
हर निर्देशक एक अभिनेता में अपनी ज़रूरत मुताबिक़ अलग प्रतिभा की तलाश करता है। कई निर्देशकों के साथ आपने काम किया। कुछ ऐसे निर्देशक बताइए जिन्होंने आलोक चटर्जी के उस अभिनेता को सही अर्थों में परखा।
- बेसिकली मुझे अलख जी और कारन्त जी ने पहचाना। उन्होंने अपने नाटकों में बहुत भिन्न- भिन्न क़िस्म की भूमिकाएँ दीं। जैसे 'हयवदन' में मैं देवदत्त कर रहा था मुख्य नायक का रोल और 'आधे अधूरे' में अशोक का रोल तो वहीं 'महानिर्वाण' में हमें बुद्धू युवक का रोल दिया जिसके तीन डायलॉग थे ढाई घंटे के नाटक में। अब देखें कि तुम कितने बड़े एक्टर हो। देवदत्त और अशोक तो ठीक है। इस रोल में अपने आपको स्टेबलिश करके दिखाओ। सतीश आलेकर जब इस नाटक के साथ आए तो उन्होंने कहा कि हमारे नाटक में मोहन आगाशे जी ये रोल करते हैं लेकिन वह एस्टेब्लिश नहीं होता आपके नाटक में बुद्धू युवक ज़्यादा एस्टेब्लिश होता है। लिखा हुआ एस्टेब्लिश नहीं होता आपके नाटक में। बुद्धू युवक ज़्यादा एस्टेब्लिश होता है। बाबा कारन्त बहुत बड़े मैजिशियन थे। ही नेवर टोल्ड अस कि आई वांट दिस, आई वांट दिस। तुम हो, तुम्हारा अखाड़ा है तुम अभिनेता हो। गाने की बात है तो मैं टोक दूँगा। बाक़ी तुम जानो कैसे करते हो। बंसी जी थे जो डिज़ाइन के अन्दर एक्टर कैसे काम करें इसके विशेषज्ञ थे। 'अंधा युग' कर रहे हैं जो एक बहुत बढ़ा कैनवास है। कैनवास में आप अश्वथामा की केन्द्रीय भूमिका को कैसे ले आएँगे दर्शकों के सामने।
अद्भुत बात कह दी आपने। आप भाग्यशाली भी हैं और पुरुषार्थी भी कि आपके हिस्से इतने मूर्धन्य, मेधावी व्यक्तित्त्वों की निकटता आयी। आपकी प्रतिभा और कौशल को नया उन्मेष मिला। लेकिन इधर आपके बाद जनरेशन के सामने समय और हालातों ने बेसब्री परोस दी है। नई तकनीक ने जीवन्त संवाद की जगह लगभग छीन ली है।
- एक निर्देशक, अभिनेता और अभिनय शिक्षक के तौर पर जो मैं देश भर में घूमा हूँ। बहुत अलग-अलग तरह की सिनेरियो है विनय जी। एक सिनेरियो तो है कि जो सच में पूरी लगन और निष्ठा के साथ लगे हुए हैं ऐसे युवा और ऐसे समूह जो इसको ही अपना जीवन और काम बनाना चाहते हैं। लेकिन इनके साथ बहुत सारे दूसरी तरह के समूह भी हैं जिसमें सबसे बड़ा समूह है कि थिएटर कर लो थोड़ा सा और उसके बाद बॉम्बे पहुँच जाओ। थोड़ी वेब सीरीज़ कर लो। एक सीढ़ी की तरह यूज करो और आगे चले जाओ। और बॉम्बे जाकर भी बोलते रहो कि मैं तो थिएटर से ही आया हूँ। लेकिन मैं यहाँ सिनेमा करने आया हूँ। मैं यहाँ थिएटर करने नहीं आया। न थिएटर देखने आया हूँ। मैं यहाँ सिर्फ़ सिनेमा करने आया हूँ।
पता नहीं, वह लोग कितने सफल हैं? तीसरे जो लोग थिएटर में रह गए हैं उनमें ईमानदार लोगों के अलावा ईमानदार समूह के अलावा कुछ रंग समूह ऐसे हैं जो सिर्फ़ ग्रांट पाने के लिए नाटक करते हैं। कुछ रंग समूह ऐसे हैं जो दूसरे निर्देशकों से नाम छुपा कर ठेके पर अनुबन्ध लेकर पैसे देकर नाटक करवा लेते हैं। कुछ लोग ऐसे हैं जो थिएटर को सिर्फ़ एक पॉलिटिकल हथियार या सरकारों का विरोध करने का एक शस्त्र मानकर थिएटर करने लगे हैं। तो इस तरह बहुत अलग-अलग तरीक़े के सिनेरियो हैं। बंगाल का छोटा सा जिला है कालिगंज नार्थ। वहीं पर थिएटर वालों ने ख़ुद मिलकर अपनी जेब से कुछ पैसा कैसे गाँव वालों से इकठ्ठा करके दिया है। नदी किनारे कुछ कुछ बीघा ज़मीन ले ली है। उसमें तीन-चार कमरे बना दिए हैं। वहीं खुले में रिहर्सल होती है। जो गेस्ट आता है उन्हीं कमरों में रुक जाता है। और नदी किनारे शाम को शो हो रहे होते हैं। एक ग्रुप है कोलकाता का जिसमें डायरेक्टर से लेकर एक्टर तक सारे अन्धे हैं और वह लोग रियलिस्टिक नाटक करते हैं। तो ऐसे ऐसे लोग भी तो है जो थिएटर कर रहे हैं इतनी सीरियसली और युवा पीढ़ी में भी बहुत सारे लोग अपने काम को आगे बढ़ा रहे हैं और लिख-पढ़ भी रहे हैं। आप भी जानते मुझसे बेहतर हैं कि करने के लिए बहुत कुछ है। देखने के लिए बहुत कुछ है ख़ुद का कहने को कुछ नहीं। क्योंकि डी फोकस्ड हैं। किताबें पढ़ना आप छोड़ चुके। चिट्ठियाँ लिखना आप छोड़ चुके। डायरियाँ लिखना छोड़ चुके। कोर्स की किताबों के अलावा आप कुछ पढ़ना छोड़ चुके। आप अच्छा सिनेमा देखना छोड़ चुके। आप बिथोविन और शोपन और रवीन्द्र म्यूजिक जैसा अच्छा म्यूजिक भी नहीं सुनते। और आप नाचा, माच और नौटंकी भी नहीं सुनते। आप कुछ वीटीवी और एफटीवी के बीच जेनरेशन हैं। सोशल रियलिटी ये हो गई है कि आपने अपने जीवन में संघर्ष किया और एक छोटा सा फ्लैट ख़रीद लिया। एक कार ईएमआई पर ख़रीद ली। एक एक्टिवा ईएमआई पर ख़रीद लिया। जब तक इसका लोन चुका तब तक औलादें बड़ी हो गई। औलादों ने कहा- यार ये मॉडल तो 2000 फलाने का है। बहुत पुराना हो चुका है ये। बेच दो नई लाते हैं। चाहे लैपटॉप हो, चाहे मोबाइल हो, चाहे गाड़ियाँ हो वह व्यक्ति के साथ ही उसके जीवन काल में ही आऊट डेटेड हो जाती हैं।
मतलब जो सुविधाएँ हैं बहुत ज़्यादा भ्रमित कर रही हैं, ख़ासकर हिन्दी पट्टी में कुछ अधिक ही। अधकचरा और बौना रंगकर्म हमारे समय में बहुत हावी हो गया है।
- हाँ, हिन्दी पट्टी में बहुत ज़्यादा। कुछ ग्रुप ऐसे हैं जो निर्विवाद रूप से अच्छा काम कर रहे हैं पूरे देश में अलग-अलग भारतीय भाषाओं में। उनको तो ग्रांट मिलनी ही चाहिए। वरना अपना काम कैसे करेंगे? उन्होंने अपने जीवन के 20-25 साल दे दिए। उनके भी बीवी-बच्चे हैं। युवाओं को भी लेकिन ग्रांट मिलनी चाहिए। उनको मिलनी ही चाहिए जो ग्रांट के वास्तविक अधिकारी हों ना कि सिर्फ़ कागज़ी कार्रवाई करके हिसाब-किताब ओके करके भेजने वाले हों। दरअसल ये समस्या फोर्ड फाउंडेशन के आने के साथ भी हुई थी। इसने रंगकर्मियों को ऐसा भ्रमित किया था कि हर बड़ा डायरेक्ट फोर्ड फाउंडेशन की ग्रांट लेकर घूम रहा था और जब यहाँ की मिनिस्ट्री जब मुश्किल से दो-तीन लाख रुपए बड़े से बड़े डायरेक्टर को देती थी तब 14 लाख से शुरू की थी फाउंडेशन ने। विचारों की धार कहीं कुन्द पड़ गई। अभी अनुदान के समय भी ये हो रहा है। लोगों ने इसको एक कमाई का ज़रिया बना लिया है। बंसी कौल मज़ाक में कहते थे ना कि यह संस्कृति की रोज़गार गारंटी है क्या?
आप काम अच्छा करें या ना करें। आपके ग्रुप के कागज़ात ठीक हैं इसलिए आपको ग्रांट मिलना चाहिए। भोपाल में ही 10-12 ग्रुप तो ऐसे होंगे जो रेपेट्री ग्रांट लेते हैं पर साल भर में क्या पाँच बड़े अच्छे नाटक भोपाल में तैयार हो रहे हैं? तो हम एक्टिविटी पर ज़्यादा ध्यान दे रहे हैं। रंग आंदोलन की ओर हम ध्यान नहीं दे रहे हैं। हम रंग गतिविधियाँ कर रहे है। हम रंग आन्दोलन से कट रहे हैं जो कभी शौक़िया रंगकर्म के काम की ख़ूशबू थी। एक चाय और एक समोसे पर जो एक रन थ्रू कर लेने की इच्छा थी या शाम को बैठे किसी के घर और भाभी ने कहा कि यह मुरमुरे हैं और चने हैं चाय बना कर दे देती हूँ करो। तो पता चला कि बैठकर एक आदमी एक रचना पढ़ रहा है। 'रानी नागफनी की कहानी' या 'लंगड़ी टांग'। 10 लोग बैठकर हँस रहे हैं। और फिर इस पर बात हो रही है कि बताओ कैसी लगी? तो फिर किसी ने कहा कि हमें दे दो यार हम दो दिन बाद दे देंगे। तो जो शौक़िया रंगकर्म की ख़ूशबू थी कि किताबें ढूँढते थे। सीनियर से पूछते थे कि सर लाइटिंग कैसे करते हैं?
रंगमंच और शिक्षा को लेकर परिदृश्य बदल रहा है। गम्भीरता नज़र आ रही है। नई शिक्षा नीति ने भी अनुशंसा की है। एक तरफ़ हम राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे इंस्टीट्यूट को देखते हैं तो दूसरी तरफ़ अब सदर गाँव, क़स्बों और शहरों में भी रंगकर्म के प्रशिक्षण को लेकर गम्भीरता दिखाई देती है। भोपाल की बात करें तो टैगोर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रबीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय ने शुरुआत की है। मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय भी एक मिसाल है।
- आपने बहुत अच्छी बात कही कि रंगमंच के लिए कलाओं के लिए बहुत अच्छी गुंजाइश दिखाई देती है अध्ययन की। और अध्यापन की, दर्शन की और प्रदर्शन की। इस हिसाब से भविष्य में रोज़गार भी तो सृजित करने होंगे। अगर टैगोर विश्वविद्यालय है। टैगोर विश्वविद्यालय का रंगमण्डल है। तो दो डिफरेंट स्ट्रक्चर हैं जिसके ऊपर एक आपको स्टाफ़ से लेकर अन्य सब चीज़ों पर भी फ़ोकस करना होता है। यह पैरेलल एम्प्लॉयमेंट भी पैदा करता है। इनके प्रति युवाओं में एक अदभुत क्रेज़ है।
आलोक भाई हमारे बीच चल रहे एक संवाद में आंचलिक या लोक रंगमंच की शैलियों का सन्दर्भ भी जुड़ना चाहिए। आधुनिक रंगमंच की जड़ें उसी से हरी हैं।
- मुझे लगता है कि शायद रंगकर्म की शिक्षा के साथ इसे जोड़ने में सबसे बड़ी सहूलियत होगी और एक अच्छा सकारात्मक वातावरण बनेगा। जैसी आपकी हमारी संस्कृति और ज़ुबान है जब उसमें बात की जाएगी और काम होगा तो वह देशज भाव हमें अधिक स्वीकार होता है। हम चाहे फोक करें या फोक का प्रयोग आधुनिकता में करें या आधुनिक तरीक़े से फोक को करें यह सब हमारे समकालीन भारतीय रंगमंच का एक हिस्सा है। और जब शिक्षा में यह सब चीज़ आएँगी तो आप इसके लिए अध्यापक और अभिनेता और उच्चारण सुधारने वाले और भाषा विशेषज्ञ और फोनेटिक वाले सब चाहिए पड़ेंगे। जैसे कि जब हम फैद्रा कर रहे थे पेरिस थिएटर नेशनल थिएटर के डायरेक्टर के साथ तो मैं उनका असिस्टेंट डायरेक्टर, प्रोडक्शन मैनेजर भी था। मैं उनके साथ बहुत समय बिताता था। उनसे मुझे पता चला था कि 1988 में पेरिस में चार फैक्ट्रियाँ थीं जो सिर्फ़ थिएटर वालों के लिए प्रॉपर्टीज बनाती थीं। इतनी बड़ी थिएटर इंडस्ट्री है वहाँ। थिएटर वालों के लिए चार फैक्ट्रियाँ बनानी पडीं कि स्टेज पर क्या-क्या प्रॉपर्टीज लगती हैं वह सब बनाओ और बेचो। प्रॉफिट होगा तभी तो चलेंगी ये फैक्ट्रियाँ। तो रंगमंच को शिक्षा के साथ जोड़ने से वो रोज़गार भी देगा। मान लीजिए मैं बॉम्बे नहीं जाना चाहता। कोई युवा है वह मुम्बई नहीं जाना चाहता। वह दिल्ली भी नहीं जाना चाहता। वह अपने प्रदेश और क्षेत्र में ही काम करना चाहता है। उसके लिए यह चीज़ कितनी ज़रूरी होगी कि अपनी संस्कृति से जुड़कर, शिक्षा से जुड़कर उससे वह ट्रेनिंग और फिर रोज़गार तक पहुँचे। ऐसे कई युवा कर रहे हैं। सीमान्त पहाडी क्षेत्रों में मेरे कुछ भूतपूर्व छात्र हैं जिन्होंने दिल्ली मुम्बई कोलकाता का मोह छोड़कर अपने गाँव अपने कस्बे में गए ट्रेनिंग लेके। और पिछले 10 साल से वहाँ काम करते-करते अब दिल्ली तक दस्तक हो गयी है उनकी।
बड़ा अज़ीब सा दृश्य इस वक़्त देख रहे हैं कि थिएटर से निकलने वाले लोग सिनेमा में गए और फिर सिनेमा में जाकर वापस थिएटर में लौट रहे हैं। कुछ लोगों ने दोनों प्लेटफार्म पर सक्रियता बनाए रखी है। इसे किस तरह देखते हैं?
- थिएटर एक ऐसा माध्यम है जो मेन टू मेन कनेक्शन का माध्यम है। वह आदमी यानि दर्शक से सीधे कनेक्ट करता है। यहाँ मेरे और दर्शक के बीच कैमरे का लेंस है। वह लेंस है, रिकॉर्डिंग है, यह कहीं ऑब्सटिकल की तरह भी आता है। सुविधा की तरह भी आता है। दूसरी बात रंगमंच के बारे में, जब आप होते हैं तो वह एक जीवित घटना है जो दर्शक और रंगमंच के बीच घटित होती है। यह रसायन वही पैदा होता है और उसी समय ख़त्म भी हो जाता है। वो इतना क्षणभंगुर भी है। आपको पूरा अच्छादित कर लेता है। रंगमंच के परफॉर्मेंस को बिगाड़ा भी जा सकता है बाद में सुधार भी जा सकता है। लेकिन सिनेमा और टेलीविज़न और वेब सीरीज़ ऐसी कोई सुविधा नहीं देगा। जो फाइनल प्रिंट निकल गया। जो फाइनल रिकॉर्डिंग हो गई वो 100 साल तक भी ऐसी ही रहेगी और उसके बाद फिर नष्ट भी हो जाएगी।
आपको मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय का निदेशक भी बनाया गया। एक नई भूमिका में थे आप। इस तरह की संस्थाओं को चलाने का एक अलग क़िस्म का कौशल भी होता है। एक अलग क़िस्म की योग्यता की दरकार भी ऐसे पद रखते हैं। आपका अपना अनुभव मध्य प्रदेश राज्य नाट्य विद्यालय के निदेशक बतौर कैसा रहा?
- मेरा कुछ-कुछ मिक्स रहा। कुछ अच्छा, कुछ कम अच्छा, कुछ खट्टा, कुछ मीठा। जो अच्छी चीज़ें रहीं वह पहले बताऊँगा। वो ये कि कोविड काल जब ख़त्म हो रहा था और केन्द्र और राज्य सरकारों ने घोषणा की कि अब सार्वजनिक रूप से कुछ हो सकता है। तो सबसे पहला काम मंच पर बुलाकर मेरे समय ही नाट्य विद्यालय ने चबूतरा रंगमंच पर किया था। जिसमें तीन दिन भोपाल के तीन थिएटर ग्रुपों को काम दिया गया था। उसके बाद मैंने एक्सटेंशन प्रोग्राम शुरू किया जिसमें एक-एक लाख रुपये चार बड़े थिएटर ग्रुप को दिए गए और 50-50 हज़ार रुपये 25-25 हज़ार रुपए जो चिल्ड्रन थिएटर कर रहे हैं उनको जो ट्राइबल थिएटर कर रहे हैं उनको। जो फोक थिएटर कर रहे हैं। ऐसे 13 वर्कशॉप। साल में एक्सटेंशन से मैंने किए। यह नाट्य विद्यालय जो 2 साल का हुआ है। इसकी सारी काग़ज़ी कार्रवाई सब मैंने ही कंप्लीट करवाई। शुरू अब हुआ है। उसके बाद मैंने मध्य प्रदेश के क़रीब डेढ़ सौ लोगों को मध्य प्रदेश नाटक विद्यालय के प्रोग्राम्स में जोड़ टोकन अमाउंट पेमेंट करवाया नाट्य विद्यालय के पूर्व छात्र-छात्राओं को भी मैंने बुलाया। बड़ी संख्या में जोड़ा। ये सब चीज़ें कुछ अच्छी हुई। रोबिन दास, कुलश्रेष्ठ जैसे लोगों को मैंने बुलाया। फोक के ऊपर काफ़ी काम किया मैंने ओमप्रकाश शर्मा जी, रामसहाय पांडे जी को दोबारा भोपाल में लाकर उनसे प्रोडक्शन करवाए। उसके बाद ही जनजाति संग्रहालय ने उनकी रिकॉर्डिंग की। अपनी तरफ़ से विद्यार्थियों को भी पूरे अच्छा शिक्षण देने की कोशिश की। जो बहुत अच्छा नहीं रहा वो ये कि मुझे आसपास का वातावरण बहुत सकारात्मक लोगों से भरा हुआ नहीं लगा। आसपास के वातावरण से नेगेटिव वाइब्स आती हैं तो वह आपके अन्दर की पॉजिटिविटी को भी असर करती हैं। सम टाइम्स यू बिकम इरिटेट सम टाइम्स यू बिकम लाउड और सम टाइम्स यू डू समथिंग रॉन्ग आल्सो। कुछ भी हो सकता है। मुझे जब बहुत सकारात्मक परिणाम नहीं मिल रहे थे तो भी मैंने अपनी तरफ़ से कोशिश की कि उन लोगों को बोलूँ कि यार तुम लोग अपना-अपना काम करो। तुम्हारे कुछ काम में हूँ नहीं, मैं अपना काम कर रहा हूँ। मुझे कर लेने दो 3 साल का टेन्योर है उसके बाद में चला जाऊँगा। मुझे दबारा नहीं रहना है। तो उन चीज़ों ने थोड़ी डिस्टरबेंस की और इस समय क्या हुआ कि फेसबुक पर कुछ लोगों और समूहों का एक ग्रुप ऐसा एक्टिवेट हुआ जिसने लगातार सोशल मीडिया पर नाट्य विद्यालय, उसके स्तर, उसके काम, आलोक चटर्जी क्या कर रहा है, इन सब पर बड़ी नकारात्मक टिप्पणियाँ देनी शुरू कर दीं। यह एक समय चला। और उसमें बड़े कुछ प्रिय पात्र भी थे। कुछ ऐसे लोग भी थे जो चाहते ही नहीं थे कि मैं डायरेक्टर बनूँ। अब मैं क्या करूँ? सरकार ने बनाया मुझे।
आलोकजी, बेकस्टेज पर चर्चा बहुत कम होती है। उसके साथ पक्षपात भी होता रहा है। जबकि मंच की सारी ऊर्जा का स्रोत नेपथ्य ही है।
- मैं ये मानता हूँ कि अभिनेता और अच्छा अभिनेता बनने के लिए कुशल नेपथ्यकर्मी होना उतना ही आवश्यक है। मुझे कारन्त जी ने कहा कि तुम भविष्य में हिन्दी थिएटर में सिर्फ़ एक्टिंग करके पैसा नहीं कमा पाओगे। तुम्हें दूसरे काम भी सीखने पड़ेंगे। तुम मेकअप और लाइटिंग सिख लो। तुरन्त पैसे मिलते हैं इसके। इसका पैसा रुकता नहीं। तो मैंने मेकअप में इंटरेस्ट लिया और रंगमण्डल में ही मैं लोगों के मेकअप करने लगा था। मैंने स्टेज लाइटिंग शुरू कर दी थी। एनएसडी में जाकर मैंने इसको और डेवलप किया। वहाँ फिर मैं लाइटिंग करने का पैसा भी लेने लगा। जो बाहर से ग्रुप्स आते थे।
जब मैंने ग्रुप 'दोस्त' खोला तो मुझे किसी लाइटिंग वाले को प्रोफेशनली बुलाकर पैसे देने की ज़रूरत नहीं पड़ी क्योंकि मैं और शोभा ख़ुद लाइटिंग कर लेते हैं। लाइटिंग करके हमने पैसे बचाये भी हैं, पैसे कमाये भी हैं। मेकअप करके हमने अपने चेहरे को भी छू-छू के अलग चरित्र में बदलते देखा है तो दूसरे को भी एक अलग रूप आकार देते हुए अपने हाथ पर उँगलियों को पाया है। वह चरित्र जब मंच पर एक हाड़-मांस के अनुभव के रूप में घटित होता है तो उसमें एक अभिनेता का योगदान होना चाहिए। जब हम एनएसडी पढ़ने गए थे तो हमें बताया गया था कि तुग़लक नाटक में मनोहर सिंह जिस चौकी पर बैठते थे वो चौकी ख़ुद उन्होंने कारपेंट्री क्लास में जाकर बनाई थी। क्योंकि उन्होंने कहा कि कारपेंटर एक अच्छी ख़ूबसूरत चौकी बना देगा लेकिन उसे नहीं मालूम कि मेरा वजन यहाँ कितना है? उसे नहीं मालूम कि मैं हाथों को कहाँ रखता हूँ। मेरी चौकी में कहाँ से कहाँ तक की सीट चाहिए ये मैं ज़्यादा जानता हूँ। अपने हाथ का पकड़ा हुआ दंड, म्यान, चौकी यह मनोहर भाई ने अपने हाथों से कारपेंट्री क्लास में बनाई थी। कारन्त जी बोलते थे कि समग्र अभिनेता बनो। कभी ज़रूरत पड़े तो तबला भी बजा लेना। कभी ज़रूरत पड़े तो गा लेना यदि मुख्य गायक का गला ख़राब हो तो। एक्टिंग तो तुम करोगे ही। एक्टिंग नहीं कर रहे हो तो लाइटिंग कर दो। लाइटिंग तो शो के समय करोगे उसके पहले मेकअप कर दो और रिहर्सल प्रोसेस में बैठकर क्या करोगे तो क्यों नहीं थोड़ी प्रॉपर्टी बनाते। मास्क बना लो।
चलिए, अब बात आख़िर में स्क्रिप्ट की। रंग बिरादरी में अक्सर आवाज़ उठती है कि नए नाटक नहीं लिखे जा रहे।
- मैं ये रंगरूदन पिछले कई समय से देख-सुन रहा हूँ। कब तक साठ और सत्तर और अस्सी के दशक के लिखे महान नाटकों पर टिके रहेंगे। मोहन राकेश के नाटक। विजय तेंदुलकर के नाटक। शरद जोशी के नाटक धर्मवीर भारती का 'अंधा युग'। महानता अपनी जगह है या तो उसको आमूल चूल एक दम एक नए फ्लेवर में प्रस्तुत करें, नयी व्याख्या के साथ कि हमें वो आज का लगे। अगर हमें 1970 के ही 'आधे अधूरे' करना है तो 2023 में उसका करने का क्या रेलिवेंस बनेगा? सिवाय एक मिडिल क्लास रियालिटी के। नाटक नए लिखे नहीं जा रहे ऐसी बात नहीं है। बल्कि मैं तो ये कहूँगा कि कुछ रंगकर्मियों को इस बात का रोग लग गया है कि हम नए नाटककारों को नहीं खोजेंगे। हम ख़ुद ही नए नाटक लिख कर उसको डायरेक्ट कर लेते हैं और उसकी भी ग्रांट ले लेते हैं। नई स्क्रिप्ट जो लिखी गई हैं कुछ उनमें से कुछ स्क्रिप्ट अच्छी हैं और वो खेली भी गई है। चाहे वो रीवा के प्ले राइटर योगेश त्रिपाठी हों। विशाल कलंबकर का 'महा शमशान।' आशीष पाठक, उन्होंने काफ़ी अच्छा लेखन कार्य किया है। युवाओं में भी कुछ लोग बहुत बढ़िया काम कर रहे हैं। भारतेंदु नाट्य विद्यालय, टैगोर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय यहाँ से जो बच्चे निकल रहे हैं इनमें से कई लोग हैं जो सीरियसली लेखन में लगे हुए हैं। मुझे लगता है कि दो तीन ट्रायल के बाद को समझ जाएँगे कि मंच के लिए नाटक लिखना क्या होता है। विनय जी आप जानते हैं कि बड़े-बड़े कवियों और कहानीकारों ने भी नाटक लिखे। लेकिन मंच की ज़रूरत को समझना और रंग व्यवहार को समझते हुए नाटक लिखना एक अलग बात है और कल्पना में बैठकर ब्रैकेट के साथ लिख देना अलग बात है। नए नाटक आएँगे उसमें से हमें चुनना होगा कि वह हमारे समाज और समकालीन प्रासंगिकता की कसौटी पर कितना ख़रा उतरते हैं।
इधर कहानियों के रंगमंच की बात आई और फिर कविताओं के मंचन ने भी ज़ोर पकड़ा। इस तरह की विधाओं के पास जाने से भी जड़ता टूटी। नए प्रयोग सामने आए। दर्शकों ने पसन्द भी किया।
- हाँ, बिलकुल। हम लोगों ने कविता, कहानी और उपन्यास भी किया है। दोस्तोयवस्की की तस्वीर और 'कपाल कुंडला' बंकिम का 'आनन्द मठ'। हमने तो तीन उपन्यास भी डायरेक्ट किए है। असल में प्रॉब्लम क्या है हिन्दी थिएटर जिसे हम कह रहे हैं यह विजय तेंदुलकर, मोहन राकेश और बादल सरकार के अधिकतर अनुवादों के नाटकों पर निर्भर रहा है। अब वो टाइम ख़त्म हो गया और यहाँ माल नया आ नहीं रहा है। जो नया आ रहा बहुत ज़्यादा उसमें वज़न नहीं है।
इस वक़्त अगर मैं पूछूँ कि आलोक चटर्जी क्या नया सोच रहे हैं?
- एक नये सोलो पर काम कर रहा हूँ। सोच रहा हूँ वह दिमाग में उमड़ रहा है कि अपने रंग गुरु कारन्त साहब को एक ट्रिब्यूट देते हुए कि उनके जीवन के वह प्रसंग जो किसी किताब में ज़्यादातर नहीं आते कोई रिकॉर्ड में नहीं है या वह नाटक के जीवन और नाटक की सफलता से सम्बन्धित चीज़ें नहीं हैं। बल्कि वह अपने एक्टर्स से बात कैसे करते थे। व्यवहार क्या करते थे। पढ़ाते कैसे थे? सिखाते कैसे थे? डाँटते कैसे थे? प्यार कैसे करते थे? हम लोगों के बीच में चुटकुले कैसे सुनाते थे। टूर पर कैसे रहते थे? उन सब चीज़ों को लेकर एक रंगजाल बुना जा रहा है दिमाग में। 50 मिनट एक घंटे की प्रस्तुति में बदला जा सकता है- 'एक थे कारन्त'।
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