भाई के वो सबक कभी भूला नहीं - ध्रुपद गुरु तथा गायक ज़िया फरीदुद्दीन डागर

 


भाई के  वो सबक कभी भूला नहीं 

ध्रुपद गुरु तथा गायक ज़िया फरीदुद्दीन डागर से विनय उपाध्याय का दुर्लभ संवाद 



भोपाल में वे करीब पच्चीस साल रहे।  उस्ताद अब इस दुनिया में नहीं है। आठ मई को वे संगीत को, ध्रुपद को और दुनिया-जहान को अलविदा कहकर चले गए। एक रिक्ति छोड़ गए, हर संगीतप्रेमी के मन में। भोपाल में उनकी परम्परा के संवाहक गुंदेचा बन्धु हैं जिन्होंने ध्रुपद केन्द्र की स्थापना करके देश-विदेश में अपने उस्ताद की विरासत का परचम फहराया है। यह सही है कि जिया फरीदुद्दीन डागर सिद्ध ध्रुपद गायक थे, लेकिन वीणा वादक भी वे मामूली नहीं थे। शायद 19 पीढ़ियों की डागर-परम्परा की यही सिफ़त हो। यह और बात है कि इस कला का प्रदर्शन उन्होंने गाहे-ब-गाहे ही किया है। ऐसी दुर्लभ प्रजाति के संगीत साधक अब दुनिया में नहीं मिलते जिन्होंने आरंभिक दौर में बहुत गुरबत में दिन गुजारे, संघर्ष किया मगर, लक्ष्मी के इन्द्रजाल में कभी फंसे नहीं। मणि कौल ने उन पर एक फिल्म बनाई है- ध्रुपद। गुंदेचा-बंधुओं ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए ठीक ही कहा है कि उनके जैसा सुरों के समंदर में डूबा हुआ मनीषी अब पैदा होना मुश्किल है। यही सार ‘ध्रुपद' का भी है। लेकिन उस्ताद ज़िया फरीदुद्दीन को इस क़ाबिल बनाने वाले उनके बड़े भाई उस्ताद ज़िया मोहिउद्दीन डागर के लिए हमेशा वे गहरी कृतज्ञता से भरे रहे। कला समीक्षक विनय उपाध्याय से हुई लम्बी वार्ता में इसी एहतराम से भरे हैं  'छोटे उस्ताद'।


ज़िया फरीदुद्दीन डागर के साथ गुन्देचा बंधु 

अपने बड़े भाई उस्ताद ज़िया मोहिउद्दीन डागर की स्मृति मेरे लिए अमूल्य निधि की तरह है। एक साये की तरह वो मेरी जिंदगी का हमसफ़र रहे। सोचता हूँ, वो न होते तो शायद संगीत की सच्ची इल्म से वंचित रह जाता। वो उम्र में मुझसे तीन साल बड़े थे, पर वे बड़े भाई के साथ ही सच्चे गुरु और मित्र की तरह मेरा साथ निबाहते थे। हमारे परिवार की संगीत परंपरा और विरासत की उन्होंने बड़ी जतन से हिफ़ाज़त की। मुझे न केवल जीवन जीने के गुर सिखाए बल्कि संगीत की पवित्रता को समझने और उसे आदर के साथ समाज में बाँटने की प्रेरणा भी दी।

    अपने अग्रज उस्ताद के अतीत को याद करता हूँ तो मेरे जहन में वो समय कौंधता है, जब उनकी मृत्यु के बाद भारत आज़ाद हो गया था तथा राजदरबार टूटकर स्टेट में बदल गए थे। कलाकार छिन्न-भिन्न हो गए थे। उनकी रोजी-रोटी और सम्मान छिन गया था। हमारी हालत भी खराब हो गयी थी। माँ ने हमें आशीर्वाद देकर राजस्थान से बम्बई भेजा। कहा- मैंने तुम्हें पैदा किया है, तुम दोनों भाई अपनी माँ का दूध मत लजाना। कुछ बनकर ही आना। हम दोनों भाई बम्बई में माहिम में रहकर कठोर संघर्ष से गुज़रे। फुटपाथ की जिंदगी का भी स्वाद चखा और भूख-प्यास की कसक भी महसूस की। हम समंदर के किनारे एकांत में जाकर रियाज़ करते। उस्ताद मुझे तालीम देते और बिना एक पल गँवाए उसे अपने भीतर उतारने में जुट जाता। बम्बई में धीरे-धीरे हमें फिल्मों में टेक बजाने का मौका मिल गया। आजीविका के छिटपुट साधन तैयार हो गए। बम्बई में ही उस्ताद के कई शागिर्द बने। उन्होंने मुझे भी अपना शिष्य माना और मैंने उन्हें अपना गुरु।
    
    उन्होंने सीख दी- जीवन में कुछ हासिल करना है तो गुरु के प्रति श्रद्धा रखनी होगी। हम लोग वापस उदयपुर आ गए। माँ बेहद खुश हुई। हम कुछ समय बाद पुनः आए और फिर एक नया सफ़र हमने शुरु किया। दोनों भाई संगीत के विषय पर विचार करते। जो बात उचित होती उसे स्वीकार करते। हम दोनों के बीच एक अच्छा सामंजस्य था। यह वह दौर था जब बम्बई की व्यावसायिक चकाचौंध हर कलाकार को आकर्षित कर रही थी पर उस्ताद का मानना था कि हम जिस लक्ष्य को लेकर वहाँ आए हैं उसी पर हमें एकाग्र रहना चाहिए और यह उन्होंने चरितार्थ भी किया। वहाँ हम साथ-साथ जुगलबंदी करते। रात-रात भर शिष्यों के यहाँ गाते। उस्ताद की शख्सियत की खूबी यह थी कि उनके भीतर एक अच्छा संगीतकार, कुशाग्र ज्योतिषी, गहरा दार्शनिक और प्रतिभाशाली वास्तुविद् छिपा था। मुझे अच्छी तरह याद है, पिताजी की वीणा को उन्होंने कई बार तोड़-मरोड़कर नई शक्ल दी और उसमें से नई खोज, नए आविष्कार करने में लग गए। जब अपनी सूझबूझ के साथ तैयार किए गए नक्शे को लेकर वे वीणा बनवाने कलकत्ता गए तो कारीगर दंग रह गया। कहने लगा कि उसने अपने जीवन में कभी ऐसी वीणा नहीं बनायी।



मेरा मानना है कि ध्रुपद के दो सौ साल के इतिहास में उस्ताद जैसी वीणा चनाने वाला कोई और नहीं हुआ। आगे उनकी ही संतान ऐसा कर पाये तो यह समय ही बताएगा। उनकी वीणा बजाने की तकनीकी भी जुदा थी। कैसे तारों को सुर में मिलाना, श्रुतियाँ कैसे उसमें बिठा, कितनी देर किस अंदाज में किस गहराई में डूब के आलाप बजाना, मीड़ के साथ गंभीरता और संवेदनशीलता का ध्यान रखना और इन सबसे ऊपर अपने ऐसी कल्पनाशीलता का प्रयोग करना कि सुनने वाला उसमें अपने चित्र खोजने लगे। रुद्र वीणा का ऐसा साधक तो मैंने नहीं देखा। तपस्वी, परिश्रमी और संवेदनशील।

उस्ताद ने मेरे उत्साह और प्रतिभा को देखते हुए यूरोप-अमेरिका की ध्रुपद यात्रा के लिए प्रेरित किया। उन्होंने कहा जा, बाहर अपनी कला का प्रदर्शन कर, अनुभव ले लोगों के बीच जाकर। इस सिलसिले में डॉ. ऋत्विक सान्याल और फिल्मकार मणिकौल भी हमसे जुड़े। कौल ने म.प्र. आकर 'सतह से उठता आदमी' फिल्म बनायी। उसमें मेरी सेवाएँ ली। मैं भी भोपाल आया तभी तत्कालीन अशोक वाजपेयी से भेंट हुई। उन्होंने मुझे भोपाल में रहकर ध्रुपद प्रशिक्षण का प्रस्ताव दिया। मैं जब यहां ध्रुपद प्रशिक्षण देने आया तो दो माह का विशेष ध्रुपद प्रशिक्षण देने बड़े उस्ताद भी भारत भवन आए। तब खूब बातचीत हुई उनसे नए शिष्यों की, जिज्ञासुओं की। उन दिनों की रिकॉर्डिंग भी भारत भवन में संग्रहित है, जो अत्यंत यादगार और क़ीमती है। मेरा कहना है कि उस्ताद की सांगीतिक धरोहर जो पुरातत्व की तरह संग्रहालय में कैद है, नई पीढ़ी के शिष्यों के लिए आज़ाद की जानी चाहिए। वे इसे सुनें, गुनें और चरितार्थ करें। उस्ताद एक महान गुरु थे। उनमें ज़बर्दस्त धैर्य था। वे कहते थे- एक सच्चे गुरु में धैर्य होना निहायत जरूरी है, तभी वह अपने शिष्य को ठीक से समझ सकता है, उसे तालीम दे सकता है। गुरु को विनम्रता से अपने शिष्य के सामने पेश आना चाहिए। भय दिखाकर न तो संगीत की सीख दी जा सकती है और न ही शिष्य के मन में आदर पाया जा सकता है।


उनका मानना था कि गुरु कभी-कभी अपने शिष्ण से भी शिक्षा ले सकता है। बशर्ते वह शिष्य को पूरी तरह खुलकर प्रस्तुत होने का मौका दे। आज जबकि मैं अपने शिष्यों को ध्रुपद का प्रशिक्षण दे रहा हूँ तो ये बातें पूरी तरह से उन पर लागू करता हूँ। उस्ताद से मिले ये नायाब गुर मेरे लिए सफलता और और सुख के आधार है, बल्कि कहूँ कि मंत्र हैं, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। मैं तो थोड़ा उग्र भी हूँ लेकिन उस्ताद एक शांत निर्मल झरने की तरह थे। मुझे याद नहीं आता कि वे मुझ पर और अपने दीगर शागिदों पर किसी बात पर बरसे हों। एक मूर्धन्य कलाकार होकर भी, लोकप्रियता के पीछे वे कभी नहीं भागे। किसी जोड़-तोड़ में नहीं रहे। वे स्वाभिमानी कलाकार थे। दुर्भाग्य है कि ऐसे संगीत मनीषी को भारत में यथोचित सम्मान नहीं मिला। आज उनका अवदान अंधेरे में खो गया है।

आकाशवाणी, भारत भवन, म.प्र. कला परिषद् उस्ताद अलाउद्दीन खाँ संगीत अकादेमी को चाहिए कि वे उनकी पुरानी रिकॉर्डिंग के सी.डी. बनवाए, ध्रुपद के नवोदित शिष्यों के सामने उसे शोध के लिए प्रस्तुत करें। मैं श्री अशोक वाजपेयी को साधुवाद देना चाहूँगा कि उन्होंने अपने कार्यकाल में उस्ताद और हम जैसों को ससम्मान बुलाया और कुछ सार्थक करने का अवसर दिया। दिनों-दिन बढ़ती जा रही व्यावसायिकता और तेज़ी से शिखर पाने की लालसा में ध्रुपद की असल चमक, उसकी मौलिकता मुरझा रही है। 


ज़िया फरीदुद्दीन डागर और ज़िया मोहिउद्दीन डागर 











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