आख़िरी साँस तक सुर क़ायम रहे - प्रभा अत्रे
आख़िरी साँस तक सुर क़ायम रहे
संगीत विदुषी डॉ. प्रभा अत्रे से विनय उपाध्याय की बातचीत
प्रभाजी, परिवर्तन प्रकृति का नियम है। हर नया दौर अपने साथ
सोच- विचार, चिन्तन का नया धरातल
लेकर आता है। भारतीय शास्त्रीय संगीत के मौजूदा परिदृश्य पर नजर डालें तो बदलाव
वहाँ भी दिखाई देता है। इस नवाचार का कुछ लोग स्वागत करते दिखाई देते हैं तो कुछ
परंपरावादी इसकी मुख़ालफ़त करते हैं। आपकी क्या राय है?
संगीत को भी समय के साथ जाना है। अगर हम सुनने वाले, गाने वाले बदल रहे हैं तो हमसे जो निर्माण होता है वह भी
उसी ढंग का होगा। यह संगीत में व्यावसायिक दृष्टिकोण जुड़ जाने के कारण हुआ है। आज
कंज्यूमर आइडिया आ गया है। ग्राहक सामने है। लेकिन कलाकार को खुद को सोचना है कि
उसको कितना बदलना है, श्रोता को अपने स्तर पर
उठाना है कि नहीं। जो कलाकार ऐसा करते हैं वे ज्यादा लोगों के सामने नहीं आते
क्योंकि लोग उनको पसंद नहीं करते हैं। मतलब जो श्रोताओं के स्तर पर जाना ज्यादा
पसंद करते हैं उनके ज्यादा प्रोग्राम होते हैं और मीडिया उनको उठाती है। ऐसे वातावरण
में ख़ाली संगीत को दोष देना ठीक नहीं है। संगीत अपनी जगह पर क़ायम है, क्योंकि शास्त्रीय संगीत एक शाश्वत संगीत है। उसमें जो
शुद्धता है, उसमें जो डिग्निटी है, एक सौन्दर्य जो अपने आप में कायम है, उसको आप हाथ नहीं लगा सकते, कुछ भी करें आप। जो बदलाव आपको लगता है। वह भी मेरे ख्याल से टेम्परेरी होगा।
वह ज्यादा दिन चलने वाली बात नहीं। मतलब जो बात चलती नहीं उसको आप छोड़ ही देते
हैं न? फिर आप वापस आते हैं, और जो बदला है वह पूरा का पूरा ख़राब है, ऐसी भी बात नहीं है,
कुछ अच्छी
बातें भी आ रही हैं।
नई पीढ़ी के संगीतकारों को लेकर
अक्सर कहा जाता है कि उनके पास धैर्य,
समर्पण
की कमी है। वे गंभीर रियाज से परहेज़ करते हैं। गुरुओं के पास भी सिखाने के लिए वक़्त
नहीं है।
आप ठीक फ़रमा रहे हैं। जो एक्टिव आर्टिस्ट हैं, मतलब जो महफ़िल में जा रहे हैं उनके पीछे नहीं जाना है आपको। जो रिटायर हैं महफ़िलों से, उनके पास जाएँ। अभी शिवजी- हरिजी को ले लीजिए। रोजाना दो-दो प्रोग्राम करते हैं। उनके पास सीखना भी तो मुश्किल है। यह भी जरूरी नहीं कि अच्छा गाने वाला या बजाने वाला अच्छा शिक्षक हो। सिखाने के लिए एक अलग-सा एटीट्यूड लगता है। वह अलग बात है, सब कोई सिखा नहीं पाता है। टीचिंग स्कूल इतने हो गये हैं जितने हमारे जमाने में नहीं थे। यह जरुरी नहीं रहा कि आप गुरु के सान्निध्य में चौबीस घण्टे रहो और सीखो, टीचिंग एड्स इतने हो गये हैं कि उसका सहारा लेकर आप सीख सकते है। अगर आप में उतनी निष्ठा है, थोड़ा कुछ ज्ञान है, पोटेन्शियल कुछ है, तो आप यह कर सकते हैं। अब मेरे पास जितनी लड़कियाँ आ रही हैं, रोजाना तो उनको नहीं सिखा पा रही हूँ। टेप रिकार्डर है तो मेरा पूरा लेसन टेप हो जाता है। उनको नोटेशंस लिखकर देती हूँ और बोलती हूँ कि तीन-चार दिन इसको ठीक करो फिर मेरे पास आओ। उतने में मैं और किसी को सिखा सकती हूँ। तो यह सहारा लेकर भी हम कर सकते हैं। जैसे वीडियो टेप्स हैं, तो मैं नहीं बोलती हूँ कि रिप्लेसमेण्ट है, गुरु की रिप्लेसमेण्ट बिल्कुल नहीं है। पहले तो उन्हीं से सीखना चाहिए और इनका सहारा लेना चाहिए। जो शुरु में होता था, क्योंकि गुरु एक ही जगह में थे। वे घूमते नहीं थे ऐसे कि आज इधर, कल उधर। वह ज़माना चला गया। एक्सपोजर बढ़ गया है, मुझे याद है कि मुझे गाना सुनना होता था तो पिता जी जब तक नहीं आते थे साथ में, कभी सुनने को नहीं मिलता था।
प्रभा जी, पं. सी.आर. व्यास कहते थे कि मंच पर जब धैर्य, संयम चुक जाये, जब सुर आपके बस में न हो तो आपको मंच का मोह त्याग
देना चाहिए। यह मंच का मोह त्यागना मैं सोचता हूँ कि उम्र के अन्तिम क्षण तक शायद
मुश्किल होता है। पं. व्यास के कथन से आप कितनी सहमत हैं?
बहुत मुश्किल है, बहुत ही मुश्किल है....।
यदि हमारी अग्रज पीढ़ी अपने इस
मोह को थोड़ा त्यागे तो जो हमारे न्यू कमर्स हैं, जो सेकेण्ड लाइन हैं हमारी, उसको प्रमोशन का मौक़ा मिल सकता है।
आप बिल्कुल सच कह रहे हैं। बहुत सी जगह मैं अपने साथ ले के जाती हूँ अपने शिष्यों को। लोगों को अच्छा लगता है तो बुलाते हैं उनको। नाम आया तो मैं उनको आगे करती हूँ। तो यह मेरा फ़र्ज़ बनता है कि जो अच्छे मेरे स्टूडेण्ट्स हैं वे आगे बढ़े। अपना थोड़ा कम करके उनको आगे करें। उनको भी तो एक सही टाइम पर आगे करना है। ऐसा नहीं है कि वे जब बूढ़े हो जायें तब उनको आगे करना है और तब तक हमीं जमे रहें मंच पर। ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन श्रोता भी बड़े नामों से ग्रसित होते हैं। नए लोगों को सुनने के लिए कोई नहीं आता। यह भी होता है न? समाज को भी देखना चाहिए कि इन लोगों की रिस्पांसिबिलिटी हमारे ऊपर है। आयोजकों को भी गंभीरता से सोचना चाहिए।
कलाकारों के मानदेय को लेकर
क्या आप दोहरे मापदंड देखती है?
मेरी यहाँ मिली-जुली सोच है। रेडियो की जो फीस है उसके ऊपर आप लिविंग नहीं कर सकते अपनी कलाकार भी एक पारिवारिक इंसान है। ख़र्चा कहाँ से निकालेगा वह? यह भी नहीं कि आप दो-दो लाख, तीन-तीन लाख माँगिए। जब तक कि कोई कारपोरेट सेक्टर आता नहीं सामने, आपको मिलती नहीं है उतनी फीस और ऐसे आयोजकों को वे ही नाम याद आते हैं जिन्हें मीडिया वालों ने इतना आगे किया है कि और कोई आर्टिस्ट दिखता ही नहीं है उनको। इन तथाकथित बड़े कलाकारों ने अगर फीस बढ़ा ली है तो क्या करें? सबको उतनी नहीं मिलती है। गिनती के नाम हैं वे ही रीपीट होते रहते हैं। बाकी ट्यूशंस करते हैं, कोई और काम करते हैं और अपना गुज़ारा करते हैं।
मतलब जनता के सामने कुछ ही
संगीतकार बार-बार आ रहे हैं और कई प्रतिभाशाली ओझल हैं।
वे अच्छे हैं। मैं पहले बोल चुकी हूँ कि बहुत अच्छे
हैं लेकिन मैंने जैसा पहले कहा कि मीडिया वालों ने उनको कुछ ज्यादा ही तवज्जो दी
है। आज जिसका अच्छा पी.आर. है वह कुछ अधिक पा जाता है।
मतलब यह कि एक अच्छा संगीतकार
होने के साथ-साथ व्यावसायिक कौशल भी बहुत ज़रूरी है।
मैं अभी, अपनी शिष्याओं को बोलती हूँ कि कैरियर
बतौर भी लेना संगीत को, लोगों से मिलना जुलना, कुछ चर्चा करना सीखो। इसके बिना होगा नहीं। अगर मैं अच्छी
भी गाती हूँ और घर में रहूँ तो आपको क्या मालूम?
विदेश जाना, वहाँ कार्यक्रम देना आज संगीतकारों के लिए विशेष या
कहें उपलब्धि का प्रतीक माना जाने लगा। बायोडाटा में ख़ास तौर पर विदेश का उल्लेख
किया जाता है।
आजकल तो कोई भी उठके चला जाता है विदेश। मैं तो अब
डॉक्टर नहीं लगाती अपने नाम के आगे। डॉक्टर भी इतने हो गये हैं कि उसका कुछ मायना
नहीं रहा। विदेश में कार्यक्रम देना भी अब बहुत मुश्किल बात नहीं रही। मैंने पहले
ही कहा कि अपना पी. आर. बना के रखो। बस.... ।
क्या विदेशों में सच्ची रसिकता
है? या केवल भारतीय संगीत
का दिखावा।
रसिकता का मतलब क्या है.... जैसे एक पिकनिक को जाते
हैं, कोई प्रोग्राम हुआ तो उसमें भी
जाते हैं लोग। जिस रसिकता की आप बात कर रहे हैं, रसिक थोड़े-बहुत हैं, यहाँ भी वैसा ही है, यहाँ कौन-सा दूसरा है। तो वहाँ भी जो नॉन-इण्डियन्स हैं वह
ज्यादा सीरियस हैं। कुछ सीरियस इतना है कि पहले से बैकग्राउण्ड तैयार करके आते हैं
कि चलो हमको यह सुनना है या क्या सुनें?
यह बात
वहाँ हमारे इंडियंस जो हैं उनमें उतनी नहीं दिखायी देती। सब वैसे हैं ऐसा नहीं, लेकिन यह कि चलो,
अपने ही
लोग हैं, भारत से आये हैं, अपने कलाकार हैं,
कहीं और थोड़ा
जाते हैं तो इधर जायें।
विद्यालयीन और महाविद्यालयीन
स्तर पर संगीत शिक्षण की पद्धति पर आपकी क्या राय है?
संगीत ख़ाली सर्टिफिकेट से नहीं आता। सामने बाजा है
और गाना है। तभी हम सर्टिफिकेट देंगे। मतलब जब ऑडीशन होगा तभी कलाकार सीखने लायक
और सिखाने लायक है कि नहीं यह पता चलेगा। गुरु ने सिखाया तो वैसा हम गा रहे हैं, ऐसा थोड़ी होता है। खुद का जो विचार-सोच है वह भी तो साफ़
होना चाहिए। एनालिटिकल आब्जेक्टिविटी जो आनी चाहिए सिखाने में, वह जब तक नहीं है,
सिखा नहीं
पाते। हमारी शिक्षण पद्धति में निश्चय ही सुधार की गुंजाइश है।
आप मंचों पर गाती हैं, सेमीनारों में जाती हैं। आप पद्मभूषण और पद्मश्री हैं, इसलिए आपकी आवाज़ का मान भी है। आपने सरकार से शिक्षण पद्धति की विसंगतियाँ दूर करने का सुझाव दिया है? मैं जहाँ पढ़ाती थी, वहाँ का पूरा सिलेबस मैंने चेंज किया था। जब मैं रिटायर हुई तो फिर से निकाल के वापस लाये उसको। तो मैं क्या करूँ? क्योंकि उनको काम करना पड़ता था उसके लिए, उनको पढ़ना पड़ता था। नये टॉपिक्स जो आये, उसके लिए रीडिंग मटेरियल्स मैंने तैयार करके रखा था, फिर भी ये हालत हुई। मेरे जाने के बाद फिर पूरा का पूरा चेंज किया। सेमीनार कितने हुए हैं एज्युकेशंस के ऊपर, क्या हुआ?
लेकिन प्रभा जी, इससे हमारा संगीत आहत नहीं हो रहा है?
दुख होता है लेकिन जहाँ तक हम कर सकते हैं, वहाँ तक
ही कर सकते हैं, उसके आगे क्या करेंगे? जब तक साथ कोई नहीं है। कलेक्टिव नहीं हैं, हम कुछ नहीं कर सकते।
संगीत की समीक्षा का वर्तमान
परिदृश्य आपको कैसा लगता है?
संगीत का आनंद हर कोई उठाता है, अपने-अपने लेवल पर समझता है उसको। लेकिन समीक्षा रिस्पांसिबल काम है। वह गायक के बारे में समाज की धारणा तैयार करती है। हमें उसे गंभीरता से लेना चाहिए। कुछ पत्र-पत्रिकाएँ इसे गंभीरता से लेते हैं लेकिन अधिकांश बड़े ही उदासीन, गैर जिम्मेदार इसके लिए संगीत-समाज को भी जागृत होने की जरुरत है। क्योंकि आम मीडिया छवि गढ़ने का काम करता है।
हमारे कई संगीतकारों ने पिछले
दिनों सरकारी सम्मान पुरस्कार लौटा दिए। सम्मानों के प्रति यह स्वाभिमान का
परिचायक है या इसके पीछे और कोई... ।
एक तो सम्मान लेना नहीं चाहिए। ले के फिर उसको
लौटाना, यह बात ठीक नहीं है। जब पद्म
अवार्ड के लिए आपका चुनाव होता है तो पूछते हैं कि आप लेंगे कि नहीं। उस वक्त हम
लोग बोल सकते हैं कि हमको नहीं लेना है। मेरा पद्मभूषण बहुत लेट आया। मैं उस वक्त
सोचती रही कि लूँ कि नहीं? फिर मैंने सोचा कि मैं
अपने लिए नहीं ले रही हूँ। मेरे पिता हैं,
उनको बहुत
आनंद मिलता है, मेरे माँ हैं उनको खुशी होगी, मेरे फ्रेण्ड्स प्रसन्न होंगे। यह मेरे हाथ में था कि लेना
है कि नहीं। मुझे मालूम हुआ कि लिस्ट में मेरा नाम दस वर्ष से आ रहा है। पर जब
मिला, मैंने स्वीकार किया।
क्या आपको ऐसा लगता है कि आपके
पास जो कुछ भी है वह पूर्व जन्म के संस्कार हैं? आपकी ख़ुद की अनुभूति इसके आसपास क्या हैं?
संगीत के लिए तो कई जन्म चाहिए, एक जन्म की तो बात है नहीं। पता नहीं और कितने जन्म मैंने
ले लिये तो इस जन्म में संगीतकार बनी। और फिर कुछ तो मेरे अन्दर होगा और फिर
परिस्थिति ऐसी हो गयी कि मुझे अपने आप आगे जाना पड़ा, मतलब सहारे के बिना। जैसे मेरे गुरु जी छः साल के बाद गुज़र
गये। फिर पूना छोड़ा, जहाँ मेरा जन्म, शिक्षा हुई। नौकरी के लिए मुझे बाहर जाना पड़ा। मेरी निष्ठा
इतनी थी मेरे गुरु के प्रति कि मैं और किसी गुरु के पास नहीं जाऊँगी, जो सिखाया मैं सुनके या पढ़के सीखूंगी। तो इसलिए मैंने गुरु
के गुजर जाने के बाद सामने बैठकर किसी से सीखा नहीं। हालाँकि संगीत सीखने के लिए
बारह बरस तो होना चाहिए आपके सामने। मेरे नसीब में कुल आठ साल थे। और घर में
बिल्कुल संगीत नहीं था। हमारे घर में माताजी-पिताजी दोनों टीचर थे। तो उन्होंने
गाना सुना भी नहीं था तो जाहिर है कि पूर्व जन्म का कुछ होगा मेरे पास तभी मैं
इतना कर पायी और आशीर्वाद है गुरुओं के,
श्रोताओं
की शुभेच्छा मेरे साथ हैं। यह सब अगर नहीं मिलता तो मैं यहाँ तक पहुँचती नहीं।
श्रोता मेरे साथ थे, जो मुझे यहाँ तक ले के आएं
है।
इन दिनों घर परिवार का कैसा
परिवेश है मुंबई में। आप तो गृहिणी भी हैं। कैसे साधती हैं सब कुछ?
बहुत काम करती हूँ। क्या कहूँ? बॉम्बे में रहके तो एक नौकर नहीं मिलता है। एक औरत होने के
कारण परिवार में पूरा काम करना पड़ता है। 90 साल की मेरी माँ है
मेरे साथ। मेरी एक सिस्टर थी, दोनों हसबैण्ड-वाइफ
डाक्टर थे, मैं सोचती थी कि मैं जब बूढ़ी
हो जाऊँगी तो ये मेरी देखभाल करेंगे। उनकी डेथ एक दुर्घटना में हो गईं। तो ए टू
जेड काम मैं खुद करती हूँ। बॉम्बे की लाइफ आप जानते हैं कि हर जगह जाओ तो क्यू है।
और किसी को आप एंगेज करो तो क्या भरोसा ?
बहुत
रिस्क है आजकल वहाँ। हम दोनों औरतें घर में हैं और हम दोनों बुढ़िया हैं। पढ़ाती
हूँ, खुद पढ़ती हूँ, लिखती हूँ। मेरा दिन बहुत जल्दी शुरू हो जाता है सुबह पाँच
बजे से और बारह बजे तक चालू रहता है। आजकल रोज सिखाती नहीं मैं। मतलब फिर अपना काम
नहीं होता। रियाज़ नहीं होता है।
कभी अपने उत्तराधिकारियों के
बारे में सोचा है कि आपकी पूँजी को कौन सम्हालेगा, उसकी कौन रक्षा करेगा?
वही तो चिन्ता होती है मुझे आजकल। मैंने एक
फाउण्डेशन बनाया है। मेरी जितना भी सेविंग्स है, मेरी जितनी किताबें हैं, जितने मैंने कलेक्ट
किये हैं फोटोग्राफ्स वह सारा मैं उसी में डालूँगी। मैंने किसी से जमीन माँगी नहीं
है, पैसा माँगा नहीं है। सोच रही हूँ कि अपने जितने संसाधन हैं उन्हीं से यह
पूरा करूँ। अगर बाद में कुछ लगे तो देखते हैं क्या होता है। मेरे बाद क्या होगा, यह समझ में नहीं आता है क्योंकि उतना सिंसियरिटी से करने
वाला आदमी मिलना बहुत मुश्किल है। हम लोग सेल्फिश हो गये हैं।
प्रभा जी, आप लगातार कुछ न कुछ नया विचार प्रतिपादित करती रही
हैं संगीत में। इन दिनों आपका ताजा कोई सोच, कोई चिन्तन, नया क्रियेशन......।
अभी तो किताबें और आ रही हैं मेरी। उसमें मेरे
म्यूजिक कम्पोजीशंस हैं। दिक्कत यह है कि पब्लिशर कुछ नहीं करते, थोड़ी तो पब्लिसिटी करनी चाहिए, लेकिन कुछ नहीं करते,
लोगों को
मालूम भी नहीं होता है। मेरी अंग्रेजी किताब जो दिल्ली में छपी है, उसकी कोई चर्चा ही नहीं। मुझे साउथ इंडियन म्यूजिक से बहुत
लगाव है। मेरे गाने में उसकी झलक भी आती है। मैंने उसमें से कम्पोजीशंस भी सिलेक्ट
किये हैं। कोई अच्छा साउथ इंडियन आर्टिस्ट टाइम निकाल के मेरे साथ बैठे तब यह
विचार आकार ले सकता है। मेरे कई कैसेट्स एल्बम मार्केट में हैं।
ईश्वर के प्रति आपकी आस्था है?
बहुत.....। मैं यह सोचती हूँ कि अगर मेरे भाग्य में
नहीं होता संगीतकार बनना तो मेरे पास कितने भी गुण होते मैं संगीतकार नहीं बनती।
भाग्य में था और ईश्वर की इच्छा थी इसलिए मैं संगीतकार बनी। मैंने जन्म लिया और
गुरु मिले, श्रोता मिले, लेकिन अगर ईश्वर के मन में नहीं होता तो मैं संगीतकार कभी
नहीं बनती। मेरी आखिरी इच्छा है कि आख़िरी साँस तक मेरा सुर अच्छा निकले, और कुछ नहीं चाहिए मुझे।
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