तीसरी रंगधारा के जनक - ज़ाहिद खान

 तीसरी रंगधारा के जनक

ज़ाहिद खान 


आधुनिक भारतीय रंगमंच को जिन शख़्सियतों ने अपने काम से सबसे ज़्यादा प्रभावित किया, उनमें बादल सरकार’ एक अहम नाम है। वे रंगमंच की तीसरी धारा यानी ‘थर्ड थिएटर' के जनक माने जाते हैं। यह आम आदमियों का रंगमंच था, पीपुल्स थिएटर। जिसमें वे बिना किसी टिकट के बेहतरीन नाटकों का मज़ा लेते थे। बादल सरकार सिर्फ एक प्रतिबद्ध रंगकर्मी ही नहीं थे, बल्कि अच्छे लेखक और सुलझे हुए निर्देशक भी थे। रंगकर्म के हर क्षेत्र में उनकी महारत थी।



बीसवीं सदी के तीन दशक यानी सातवाँ, आठवाँ और नवाँ बादल सरकार के तूफ़ानी रंगकर्म के दशक थे। इन दशकों में रंगमंच पर उनकी गहरी छाप रही। भारतीय रंगमंच को उन्होंने एक नई दिशा और नई सोच प्रदान की। भारतीय रंगमंच को वैश्विक पहचान दी। उन्होंने बतलाया कि भारतीय रंगमंच भी यूरोपीय रंगमंच से कमतर नहीं। 15 जुलाई, 1925 को कोलकाता में जन्मे बादल सरकार का असली नाम सुधींद्र सरकार था। वे पेशे से इंजीनियर थे। उन्होंने शिवपुर के बंगाल इंजीनियरिंग कॉलेज से डिप्लोमा हासिल किया। बाद में टाउन प्लानिंग का कोर्स करने के लिए लंदन चले गए। यादवपुर यूनिवर्सिटी से तुलनात्मक साहित्य में उन्होंने एमए किया। बादल सरकार नाटक की ओर बहुत बाद में आए। इससे पहले डीवीसी में उन्होंने नौकरी की। लंदन में टाउन प्लानिंग के कोर्स करने के दौरान जॉन लिटिलवुड, एंथनी सर्शियो, रिचर्ड शेखनर, मार्गेट रोलिंस और जेरी ग्रेतोवस्की जैसी हस्तियों के रंगकर्म से मुतास्सिर होकर वे अदाकारी के मैदान में उतरे। थोड़े से ही अरसे में डायरेक्शन करने लगे। डायरेक्शन करते हुए भी उनका दिल नहीं भरा। वजह, जिस तरह की कहानियाँ वे दर्शकों को दिखाना चाहते थे, वह स्क्रिप्ट उन्हें नहीं मिल रही थी। लिहाजा खुद ही लिखना शुरु कर दिया। इस तरह बादल सरकार पूर्ण रुप से रंगकर्म की तरफ आ गए। थिएटर ही उनकी जिंदगी हो गया। साल 1956 में बादल सरकार ने अपना पहला नाटक ‘सॉल्यूशन एक्स' लिखा। लेकिन ‘एवं इंद्रजीत' और 'पगला घोड़ा' वे नाटक हैं, जिनसे उन्हें पहचान मिली। उनके ये नाटक सभी जगह कामयाब रहे। इसके बाद उन्होंने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

बादल सरकार ने रंगमंच के आकाश में जब क़दम बढ़ाए, पश्चिम बंगाल में उत्पल दत्त और शंभु मित्र जैसे रंगकर्मियों और निर्देशकों का बोलबाला था। इसी दौर में हिंदी में मोहन राकेश, कन्नड़ में गिरीश कर्नाड और मराठी रंगमंच में विजय तेंदुलकर अपने नाटकों से हलचल मचाए हुए थे। बादल सरकार ने इन सब रंग निर्देशकों से अलग हटकर, अपनी एक जुदा पहचान बनाई। उन्होंने साल 1967 में 'शताब्दी' नाम से एक रंगटोली तैयार की और पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाक़ों में अपने नाटक लेकर पहुँचे। यह कुछ-कुछ राज्य के पारंपरिक लोक नाट्य 'जात्रा' की शैली थी। पर ये नाटक लोक नाट्य नहीं थे, बल्कि आधुनिक नाटक थे। रंगमंच में पारंपरिक मंचीय प्रदर्शनों के बजाय वे अपने नाटकों को दर्शकों के बीच ले गए। उन्हीं के बीच नाटक खेले गए। यह एक नया प्रयोग था। जिसमें किरदारों की ख़ास ड्रेस, मेकअप, स्टेज पर रौशनी और साउंड सिस्टम वगैरह का बंदोबस्त नहीं करना होता था। नाटक, दर्शकों के बीच खुले मैदान, सड़क के किसी नुक्कड़ या बीच चौराहे पर खेले जाते। कई बार दर्शक भी उनमें किरदार के मानिंद हिस्सा लेते थे। किरदारों के साथ बोलते-बतियाते। नाटक से वे पूरी तरह से जुड़ जाते। जाहिर है कि यह रंगमंच दर्शकों को खूब पसंद आया। रंगमंच की तीसरी धारा यानी 'थर्ड थिएटर' की यह शुरुआत थी। जिसका उन्होंने लगातार विकास किया। आगे चलकर 'थर्ड थिएटर' से ही उनकी रंगमंच में पहचान बनी। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में जब बादल सरकार अपने इस थिएटर को लेकर पहुँचे, तो वहाँ के रंग-जगत में हलचल पैदा हुई। रंग-जगत हैरान हुआ कि यह किस तरह का थिएटर है। प्रोसेनियम थिएटर से इतर यह उनके लिए अलग ही तरह का तजुर्बा था।


‘थर्ड थिएटर’ अचानक अस्तित्व में नहीं आया, इसके पीछे बादल सरकार के कई तर्जुबात हैं। उनकी जिंदगी के कुछ साल लंदन, नाइजीरिया और फ्राँस में गुज़रे। विदेशों में प्रवास के दौरान बादल सरकार ने रंगमंच की अलग-अलग शैलियों को न सिर्फ़ नज़दीकता से देखा, बल्कि उनका गहन अध्ययन भी किया। मिसाल के तौर पर इंग्लैंड में उस दौर के अजीम ड्रामा निगार विवियन ली और चार्ल्स लटन से उन्होंने मुलाक़ात की। गोलाकार एरिना मंच यानी ओपन थिएटर में मशहूर रंगमंच अदाकार मार्गेट रोलिंस को अभिनय करते देखा। पोलैंड में ड्रामा निगार ग्रोटोवस्की, जिन्होंने 'पुअर थिएटर' की परिकल्पना को दुनिया के सामने रखा, उनसे मिले। इस थिएटर के बारे में उनसे बातचीत की। तीसरे रंगमंच पर बादल सरकार का यक़ीन और भी ज़्यादा पुख्ता हो गया, जब वे रिचर्ड शेखनर के संपर्क में आए। शेखनर के सुझाव पर वे अमेरिका गए और वहाँ उनकी कार्यशाला में हिस्सा लिया। इसके बाद बादल सरकार ने खुद भी यह रास्ता इख़्तियार कर लिया। बादल सरकार ने इस शैली में सिर्फ़ रंगमंच ही नहीं किया, बल्कि थर्ड थिएटर के कंसेप्ट को लेकर उन्होंने देश के अलग-अलग हिस्सों में कई कार्यशालाएँ भी आयोजित कीं। युवा रंगकर्मियों को उन्होंने सिखलाया कि कम संसाधनों में वे कैसे अपने नाटक जनता के बीच ले जा सकते हैं। थर्ड थिएटर के बारे में बादल सरकार की सीधी-सीधी सोच थी, "जहाँ रंगकर्मियों के पास प्रतिभा, उत्साह और लगन तो है, पर साधन नहीं हैं, वहाँ तीसरे रंगमंच की जरुरत है।" यही नहीं उनका यह भी मानना था, "थिएटर के लिए दो ही चीजें जरुरी हैं, दर्शक और अभिनेता। बाक़ी तमाम साधनों को छोड़ा जा सकता है।" अपने इस ख्याल पर वे आख़िर तक क़ायम रहे। यहाँ तक कि इसे एक आंदोलन बना दिया। आम आदमी को जिस तरह से बादल सरकार के थर्ड थिएटर ने जोड़ा, रंगमंच का कोई दूसरा फॉर्मेट वह नहीं कर सका। अलबत्ता बाद में ठीक इसी शैली में सफ़दर हाशमी स्ट्रीट थिएटर लेकर आए। उनके नुक्कड़ नाटकों को भी जनता में बेहद मक़बूलियत हासिल हुई।




13 मई, 2011 को 86 साल की उम्र में बादल सरकार ने जीवन के रंगमंच से अपनी विदाई ली। निधन से बहुत साल पहले ही वे अपने नेत्र और देहदान का ऐलान कर चुके थे। उनकी मर्जी के मुताबिक़ उनका जिस्म अस्पताल को सौंप दिया गया। इससे पहले उनकी आँखें एक संस्था को डोनेट कर दी गईं। बादल सरकार ने भले ही इस दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कह दिया लेकिन भारत की सरजमीं पर उनके तीसरे रंगमंच की आहटें हमेशा कौंधती रहेगी।



'रंग संवाद' में प्रकाशित आलेख 



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