जैसे नग़्में किशोर की आवाज़ के लिए ही लिखे गये थे - जावेद अख़्तर

 जैसे नग़्में किशोर की आवाज़ के लिए ही लिखे गये थे

जावेद अख़्तर

(विनय उपाध्याय की किताब 'सफ़ह पर आवाज़' में) 



चित्र - मोपसंग वलथ


विनय उपाध्याय - कई सम्मान पुरस्कार आपकी काबिलियत पर मोहर लगाते रहे हैं। अब इस फेहरिस्त में किशोर कुमार सम्मान क्या कुछ नया अनुभव आपको दे रहा है?

जावेद अख़्तर - यक़ीनन जिस गायक को मैंने अपनी जिंदगी में सबसे अहम माना उसी के नाम पर रखा गया 'किशोर अवॉर्ड' मिलना मेरी ख़ुशकिस्मती है। फ़िल्म 'सिलसिला' के लिए लिखे गये मेरे पहले गीत 'देखा एक ख़्वाब तो ये सिलसिले हुए' किशोर कुमार ने ही गाया था। यह अवार्ड मिलने पर वैसी ही ख़ुशी हुई जैसी 'सिलसिला' के इस गीत की रिकॉर्डिंग के समय नज़दीकी के दौरान मिली थी। फ़िल्म में यह गीत जितना रोमांटिक था, वैसी ही उसको आवाज़ मिली थी। आप कल्पना कीजिए कि मुझे फ़िल्मी गीतकार की पहचान देने वाली पहली आवाज का फ़नकार अगर एक दिन मेरे लिए सम्मान का गहना बन जाये तो इससे बड़ी खुश क़िस्मती और क्या हो सकती है?


सम्मान के संदर्भ से अलग किशोर कुमार के बारे में आपकी क्या राय है?

- मैं आपको बता दूँ कि मैंने जब होश सम्हाला तब फ़िल्मी दुनिया में अनेक गायक सक्रिय थे लेकिन मुझे हमेशा किशोर कुमार की आवाज़ ने प्रभावित किया। तब ‘बिनाका गीत माला’ ऑल इंडिया रेडियो पर मैं बड़े चाव से सुनता था। उस दौरान फिल्म 'मुनीमजी' का एक गीत जिसे किशोर कुमार ने गाया था- "जीवन के सफ़र में राही" मैंने पूरा याद कर लिया था। देवानंद पर फिल्माया गीत "माना जनाब ने पुकारा नहीं" भी मुझे पसंद था, फिर एक दिन नसीब जागा कि रेडियो से तैर कर मुझ तक पहुँचने वाली वो ख़ूबसूरत आवाज़ ‘सिलसिला' में आकर मेरा नसीब बन गयी और मेरी लिरिक राइटिंग के केरियर में संग-ए-मील बन गयी।


किशोर कुमार की आवाज़ को आप किस तरह परिभाषित करेंगे?

- व्यक्तिगत तौर पर किशोर कुमार की आवाज को मैं मस्त, मदहोश और खिलंदड़ क़िस्म की मानता हूँ। मुझे उनके ग़मगीन ज़्यादा पसंद हैं। मेरा मानना है कि उनकी आवाज़ 20वीं सदी की आवाज थी। देखिये, जिस तरह इमारतों में, रंगों में, कपड़ों में समय बोलता है उसी तरह आवाज़ों में भी समय को सुना जा सकता है। किशोर कुमार की आवाज़ में ग़ज़ब की पॉलिश थी। गीत के शब्द गाने से पहले ही वे अपनी आइडिंटिटी का अहसास करा देते हैं। मसलन 'कोरा कागज था ये मन मेरा' के पहले 'हूं...हूं...हे...हे...हा...हा..' की कल्पना कीजिये। इसी तरह 'मेहबूबा' का गीत ‘मेरे नैना सावन भादो' के पहले की हमिंग 'हूं...हूं...हा...हा...हा...' में वे सिर्फ़ एक दमदार गुनगुनाहट से ही टाइम और माहौल का अहसास करा देते थे। ये कूबत हर गायक में नहीं होती। आज की आवाज़ों में किशोर को खोजना नामुमकिन है। ऐसा लगता है कि जैसे नग़्में किशोर की आवाज़ के लिए ही लिखे गये थे। लता, रफी, आशा, मुकेश कितनी पाक और सच्ची आवाज़ें हैं।

खंडवा आकर आप किशोर की समाधि और उनके पुश्तैनी घर भी गये, कैसा लगा आपको?

 - खंडवा में किशोर अवॉर्ड लेने की मुझे सचमुच खुशी है। मैंने सूचना मिलते ही यहाँ आने की इच्छा जाहिर कर दी थी। मन में बार-बार एक बात कौंध रही थी कि बचपन के जिस शहर का किशोर ताउम्र जिक्र करते रहे उसे अपनी आँखों से देखूँ। लिहाज़ा वो मुराद इस तरह पूरी हुई। लेकिन वीरानी और उजाड़ घर में देखकर मन कुछ उदास भी हो गया। इसके लिए सरकार और खंडवा-वासियों को मिलकर काम करना होगा। किशोर कुमार की यादें बस जायेंगी तो खंडवा भी अपने आप बस जायेगा। एक मायने में हम कलाकारों की यादों के बहाने अपनी संस्कृति की भी हिफाज़त करते हैं।


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Comments

  1. वाहहहहह.. विनय भाई...बहुत शानदार ...👏👍👌

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